सावन चला गया और हम तुझी को पुकारते रहे...बादल बरसे रात-रात भर मगर हम तो रात भर जागते
ही रहे...बिजली कड़की इतनी जोरों से,हम खुद से सम्भल ही ना पाए...बेबसी मे रोए फिर भी नहीं,बस
शीशे के टुकड़े खिड़की से फिर नज़र आए...तागीद सावन से फिर भी की,आना हर साल दुबारा तुम..
हम बेशक जागे तो जागे पर सावन के यह नज़ारे हो सहज औरो के लिए...चुनरी को कोरा रख दिया
यह जान के..रंग सावन के जब बिखरे चारों तरफ तो कोई तो चुनरी कोरी होनी चाहिए .....