दूर बहुत दूर तक,चादर फैली है अरमानों की...आसमां ने बाहें फैला दी धरा की धूप छाँव पे...धरा
खामोश है उस के इस अनजान अंदाज़ से..ख़ामोशी से देखा आसमां की तरफ और अपने ही खामोश
अंदाज़ से पूछ लिया,क्यों आज मेहरबान हो मुझ पर...दोनों ही खामोश थे..शायद ख़ामोशी ही उन दोनों
की जुबान थी...शायद गुफ्तगू भी यही से इन की पहचान थी...तू है सितारा दूर का और मैं हू कण इस ही
जमीन का...फिर भी जुड़ गए,आत्मीयता शायद इसी का नाम है...