वो संग संग चल रहे है हमारे,रेल की इन पटरियों की तरह...ना साथ है ना कोई दूरी है,बस मिलना नहीं
कभी दो अजनबियों की तरह....दुनियां की भीड़ गुजरती रहती है हम दोनों के दरमियां...फिर भी क्यों
तन्हा है हम दोनों अकेले पंछी की तरह...जोरों से चीख़े सुनाई दे जाती है जैसे बिजलियां कड़क के फिर
दफ़न हो रही हो यहाँ...फिर छूट जाता है यह साथ...पटरियों पे चलती यह रेल जब पहुँचती है अपने देश
अपने गांव...