जब तक था आशियाना छोटा सा,तब प्यार बहुत जयदा था...वक़्त था इक दूजे के लिए और जीवन इक
खूबसूरत बहती धारा था...कामयाबी मिली शोहरत मिली और धीरे-धीरे दौलत और महल के अम्बार हो
गए..खुले हाथों से सब लुटाया और उन को लगा सुख़ पूरी तरह उन के द्वारे आया...रास्ते अब इतने अलग
थे,वो दौलत के ढेर से खेलती थी और उस का साथी भी दौलत के खेल मे मदहोश था...हज़ारो सुखों के
बीच वो ढाई अक्षर प्रेम का कहां था..वक़्त गुजरा,चेहरे पे लकीरे पड़ी,बालो मे चांदी सजी...देह थक गई..
दौलत भी थी बहुत सारी मगर देह की हालत बहुत बुरी थी...दोनों ने देखा इक दूजे को,मगर वो प्रेम
की कड़ी अब उतनी मजबूत ना रही थी...