''सरगोशियां'' प्रेम पे लिखती है तो हर रूप लिखती है...कभी प्रेम जनून है तो कभी प्रेम इबादत है..प्रेम
कभी रूठा है तो कभी बगावत का भी नाम है...सिर्फ जिस्म को पाने पे धरा,यह परिशुद्ध प्रेम नहीं है..
जिस्म को हासिल करना,यह परिशुद्ध प्रेम का आधार कदापि नहीं है...जहाँ प्रेम का रिश्ता जिस्म की
मांग से टूटे वो प्रेम ही गलत है...प्रेम तो सब कुछ मांगता है...पूजा,इबादत,त्याग,तपस्या और इक दूजे
की इज़्ज़त का मान का..पावन सा झरोखा...समर्पण भी है मगर पाक दामन का साथ लिए..इक परिशुद्ध
प्रेम ही तो है....