कौन सी सुबह रही ऐसी,जिस की कोई शाम ना थी..और कौन सी शाम थी ऐसी,जो रात मे ना ढली..
रात के अँधेरे से घबराया,सोच यह काली रात कब दिन के उजाले मे ना बदली...सोच सोच का ही तो
फर्क है...हर सुबह उठ नए इरादों से और शाम ढलने तक उस को पूरा करने का वादा खुद से कर..
फिर देख रात ना लगे गी काली और जी तेरा ना घबराए गा...यारा,यह ज़िंदगी है...जीने का जज्बा खास
होना चाहिए...मुर्दा दिल कब इस ज़िंदगी का लुत्फ़ उठा पाते है..बस रोते रहते है और इक दिन रोते
रोते ही मर जाया करते है....