Thursday 30 April 2020

यह दर्दे-जंग सहना बहुत ही मुश्किल है..बंद कमरे मे रह कर जंग खुदी से लड़ना,कहाँ तक मुनासिब

है...कभी तड़प लेना तो कभी खुली हवाओं का इंतज़ार कर मायूस हो जाना...हर तरफ अँधेरा दिखना

और सवेरे की इंतज़ार मे बेहाल होना...फिर इक उम्मीद उसी परवरदिगार पे होना..जो देता है दुःख

की काली घटा,वो उस से निकालना भी जानता है..बस इस यकीन के साथ,उसी सवेरे का इंतज़ार सब

करना..इंसानो की यह दुनियाँ बुरी है बहुत ही बुरी..इस से अच्छा तो यह कहर है जिस की वजह तो है

पता...परवरदिगार का कोई फैसला गलत नहीं होता..हम झुके उस के आगे,आप सब भी बस शीश

नवा दीजिए..वो भगवान् है,इंसान नहीं जो सिर्फ दुःख-दर्द दे जाते है..
दिन महीने साल..निकल जाते है यू ही तो फिर अब इन दिनों के गुजरने से परेशानी क्यों...कुछ मुलाकात

कीजिए ना खुद से,शायद खुद की कमियां कभी देखी ही ना हो..कहर ज़िंदगी के यू ही आते-जाते रहे गे..

मुशकिलात जब सर से ऊपर गुजरने लगे तो दामन उसी का थाम लीजिए ना..यहाँ कौन किस के साथ

दूर तक चलता है..बीच राह मे जब कोई भी किसी को दगा दे जाता है..तो फिर यह तो कहर कुदरत का

है,जो सिर्फ सही सबक सिखाने ही आता है..इंसान नहीं जो धोखा ही धोखा देता है...
हर तरफ मौत का खौफ पर ज़िंदगी से जंग रोज़ जारी है...कोई चला गया तो किसी की बारी आने वाली

है..कोई डर रहा है आने वाली मौत से तो कोई खुद को संभालने मे जुटा है..सच्चाई ज़िंदगी की सामने

है और इंसान के हाथ खाली है...सिखा रही है कोई ताकत सही कदम,हर कदम रखने के लिए..जाना

है सभी को तो फिर जीने से समझौता कैसे..साँसे तो किसी रोज़ बिन बताए निकल जाए गी..जीना है

पता नहीं कब तल्क़,मगर बिंदास जीना है..क्यों करे तौहीन इस ज़िंदगी की,क्या पता कौन सा करिश्मा

अभी और होना है..
प्रेम को खोज रहे है आज ग्रंथो मे...इस के हर रूप को ढूंढ रहे है इन ग्रंथो के हर पन्ने मे ...परिभाषा

परिशुद्ध प्रेम की ग़ल्त ना लिख बैठे,बार-बार खोजते है शब्द इन पाक पन्नो मे...हम विद्वान नहीं,बस

कुछ शब्दों के रचियता होते है कभी-कभी..कभी दर्द को तो कभी प्रेम की धारा को अपनी समझ से

उतार देते है इन पन्नो पे...इक छोटा सा ''सरगोशियां ग्रन्थ'' रचने की कोशिश मे,कुछ शब्द पाक ग्रंथो

से चुन लेते है..शायद किसी राधा-कृष्ण को ढूंढ पाए इस कलयुग मे,यह सोच कर प्रेम को उतारते

रहते है अपने इस ग्रन्थ के खाली पन्नो पे...
पढ़ते आए है किताबो मे..राधा को अपने प्रेम का कितना सम्मान मिला,कृष्णा से पहले दुनियाँ ने राधा

का नाम लिखा..यक़ीनन प्रेम का पवित्र नाता ऐसा ही होता है..देखे आज का युग,आज प्रेम का नाता

कैसा होता है..ना यहाँ राधा जैसा प्रेम होता है,होता गर तो कृष्ण उसी का अपना होता..कृष्ण का प्रेम

भी गर सच्चा होता तो वो सिर्फ राधा का ही रहता..प्रेम-धारा पवित्र होती तो रिश्ता कुछ अलग होता...

राधा राधा न हो कर कृष्ण की रूह होती..और कृष्ण राधा की रूह का सच्चा साथी होता...

Wednesday 29 April 2020

कहर तो धरती के हर कोने हर कण मे है..इन साँसों की मोहलत किसी की कितनी और कब तक है...

किसी भी पल को निकाल दे हिम्मत को साथ रख कर...जज्बा जीने का ख़तम ना होने पाए..दिन को

विदा दी एतिहात से और अब रात को कह रहे है अलविदा बेहद प्यार से..हाथ की इन लकीरों का क्या

भरोसा,फिर भी दोस्तों कहते है सभी से...ज़िंदगी सब की सलामत रहे..साँसों का महकना कायम रहे....
धूल-गर्द जमी है हर तरफ,कितना साफ़ करे..यह ज़मीर इतना मैला है,मुहब्बत की बेशकीमती चादर

से भी धुलता नहीं..हज़ारों शिकवे और मुहब्बत,आवारा बादल की तरह आसमां मे भी घुलती नहीं..

क्यों मशक्क्त करे कि इस को पनाह देने की अब कोई जरुरत भी तो नहीं..किताबों का ज्ञान हो या

ग्रंथो की महिमा,इन के सिवा किसी और की खामो-ख़याली ही नहीं...दौर ज़िंदगी के कभी-कभी यू

ही बदल जाया करते है..यह दिल यह रूह..खुद से मुहब्बत कर के सकून से जी लिया करते है...
विश्वास दिलाया होता तो विश्वास बना होता...विश्वास करने की वजहें दी होती तो इलज़ाम का शिकंजा

क्यों कसता..यह विश्वास है तो है जो बुझे दिलों मे रंग भरता है..यह विश्वास ही तो है जो रिश्तों को अनंत

काल तक ज़िंदा रखता है..फूल तो हज़ारो बगीचे मे रोज़ खिलते है..नाम भी अलग-अलग होते है..जो फूल

अपनी थाली का है,पूजा तो सिर्फ उसी को जाता है..मगर जब तारीफ का नाम कितनों को दिया जाए तो

वो अविश्वास और धोखा ही होता है..अब यह तो समझ-समझ की बात है..कोई इस को खेल मान जीवन

जिया करता है तो कोई इस को बेवफाई समझ साथ हमेशा के लिए छोड़ जाया करता है..
चलो आज औरत की कहानी पे कुछ लिख दे..वो औरत जो खुद को भुला कर प्रेम का सागर लहराती

है..वो औरत जो प्रेम की भाषा को मधुर से मधुरतम बनाती है..भोला मन साफ़ नीयत और आँखों मे

नन्हे-नन्हे सपनो की फूलमाला..दौलत की ख़्वाइश बहुत जयदा भी नहीं बस जीवन सहज-पावन ही

चलता रहे..साथी उस को ईमानदारी से चाहता रहे और ज़मीर का यकीन सिर्फ उसी से बांध कर रखे..

टूट के उसी को सिर्फ उसी को चाहे,चाहे अप्सराएं भी क्यों ना आसमां से उतर आए..औरत,तू मान

है सम्मान है..इस धरती का अभिमान है..तू ईश्वर की बनाई इक कृति इक आशीर्वाद है...
उड़ जाना सर से दुपट्टे का,रिश्ते को नया नाम दे गया...बंधन बंधा ऐसा कि रिश्ता नायाब होने लगा..

खुद से भी जयदा यकीन उस पे होने लगा...दुपट्टे की लाज रखने के लिए,बहती नदिया सी वो बहती

रही..पाकीज़गी होती है क्या यह एहसास जताती रही..मगर इस बात से थी बेखबर,कि कब से गहरा

सैलाब उस के पीछे बहता जा रहा था कभी..विश्वास की धज्जियां उड़ी और वो बिख़र के टूट गई..वो

धागे जो महीन तो थे मगर इबादत की इबादत से भी ऊँचे थे..भरोसा,यह शब्द उस के सीने मे दर्द बन

बहने लगा..वो भरोसा जो कभी रखा था पूजा की थाली मे,उस की आँखों से कहर बन रसने लगा...

Tuesday 28 April 2020

कभी दिल किसी का दुखा दिया,कभी ज़मीर किसी का बुरी तरह रुला दिया..कभी ईमानदारी को

झुठला दिया तो कभी दाग़ खुद पे लगा लिया...असली चेहरा छुपा लिया और नकली मुखौटा दिखा

दिया...सब कर के भगवान् के मंदिर मे दीपक जला दिया...आराधना की पूजा के थाल मे और दूर

किसी को ज़ार-ज़ार रुला दिया...किसी की जलती हुई आँखों का धुआँ,क्या इस पूजा को सफल कर

पाए गा..जानते है सिर्फ और सिर्फ इतना,ना दुखा दिल किसी का,ना रुला किसी का ज़मीर इतना..फिर

चाहे मंदिर मे दीप जला या ना जला..किसी को ख़ुशी दे सके सच्ची तो फिर इतने आडम्बर की जरुरत

ही क्या...

Monday 27 April 2020

दुआ ही तो है जो बेहद ख़ामोशी से भी करो तो क़बूल हो जाती है..उस को कोई भी बात कहने के लिए

कहां कोई शर्म होती है..जब जीवन ही उस का दिया और सांसे भी, तो इक दीपक मंदिर मे जलाने मे

तकलीफ क्यों होती है...काम बहुत है,यह कह कर हम अपनी ही तौहीन करते है..जिस ने दिया इतना

कुछ,उस के लिए यह जान लुटाने से क्यों तकलीफ होती है...
दो लफ्ज़ कहे और चल दिए...अँधेरे के झुरमुट मे जल्दी से ग़ुम हो गए..अभी तो सितारों से भरी रात

ने जन्म लिया है..अभी तो चाँद भी इन से मिलने नहीं आया है...यह अँधेरा क्यों गहरा होने से पहले डस

रहा है हमें..इस अँधेरे से डर कभी लगता नहीं..मगर आज इस का इंतज़ार क्यों हो रहा है हमें...जी है

इन अँधेरी राहों पे निकल जाए और तुझे ढूंढ लाए...वो दो लफ्ज़ जो रह गए अधूरे उन को पूरा कर जाए..

Sunday 26 April 2020

खुले आसमां की खुली हवा मे जाना बंद है तो क्या गम है...यह सोच कर सकून होना,क्या कम है कि

यह हवा अब कितनी साफ़-खुशगवार है..इंसानो की फितरत ने,गन्दा किया इस हवा को और नाम

दिया कि अब सब कुछ बर्बाद हो रहा...धुँआ विषैला इतना ना उड़ाया होता,पाप को दुनियां मे इतना ना

फैलाया होता तो नज़ारा अब भी सूंदर होता..इंसानी फितरत ही तो है,खुद गलत करना मगर दोष दूजे

को देना...जब भगवान् को ही दोष दे दिया तो इस इंसान का...क्या कहना.......... 
जज़्बा है, साथ मे गर ज़िद्द भी है..तो हर नामुमकिन मुमकिन हो जाए गा..उस के पास मुझ से जयदा है,यह

भूल जा,अपनी झोली मे भी तो कुछ खास है..जो तुझे मिला वो कितनों के पास है...देख,सुबह की तमाम

नियामतें और आस-पास भी देख...तुझ से जयदा क्या किसी और के पास ऐसा है..समझ गर यह सभी को

आ जाए तो दुनियाँ बेहद बेहद खूबसूरत है..नहीं तो जलन की होड़ मे,जो पास है तो भी तुझ से बहुत दूर

है...
यह कैसा इंतज़ार है जो ख़त्म ही नहीं होता...साल,महीने और बरस..फिर भी खत्म नहीं होता...एक सदी

कितनी लम्बी होती है मगर, यहाँ तो सदिया कितनी बीत गई और इंतज़ार फिर भी बाकी है...हर रोज़

एक दिया उम्मीद का जलता है और शाम ढलते-ढलते बुझ भी जाता है..फिर सिरे से एक इंतज़ार और

शुरू होता है...दिल कहता है,उम्मीद पे दुनियां कायम है और यह नन्हा सा मासूम दिल,फिर से खुद की

बात मान लेता है..जब कि इसी दिल का दूजा हिस्सा कहता है.....इंतज़ार बहुत बाकी है अभी...

Saturday 25 April 2020

सिलसिला है या एक लम्बी यात्रा है...धूप तेज़ है बहुत कभी तो कभी चाँद सी शीतलता भी है...व्याकुल

मन रहता है कभी तो कभी कोई अजीब सी दस्तक भी सुनती है...आहे-बगाहे कुछ टूट जाता है भीतर,

तो फिर मीठी गुफ्तगू से जुड़ भी जाता है...शास्त्र चुनौती देते है अक्सर पर संस्कारो की आंच फिर इस

ज़िंदगी को थाम लेती है...पलक पे रुका वो नन्हा सा मोती,बहुत सोचने पे मजबूर कर जाता है...फक्र तो

इस बात का है,रुकना सीखा नहीं कभी...कदमो का चलना आज भी बाकी है...
तेरी ही राधा बन क्यों आसमां मे उड़ती रही...पीर मन मे भरी रही पर मीरा बन सहती रही..कभी लगा

सीता की तरह तुझी से दूर हो कर हर धर्म निभा जाऊ..तेरे ही दिल मे बसी,तेरी ही तस्वीर बन तुझे पल

पल लुभाऊ.. भोले भंडारी की गौरी बन,तेरे विष की धारा को खुद मे समा लू...रूप हज़ारो धरु,फिर भी

तेरे अंतर्मन की छवि कहलाऊ...तन वारु मन वारु..और रूह के महीन धागे तेरी इबादत करने के लिए

तेरे ही चरणों मे बांध दू...तेरी ही नज़रो मे बसी रहू,भले मुख से कुछ भी ना कहू....
रात ठहरी नहीं,सुबह की रौशनी बन दिन मे तब्दील हो गई...सृष्टि की तमाम खूबसूरती क्यों अनजाने मे

हम सब को नाकबूल हो गई...इतना मिला कि झोली भर-भर गई...बस जरा सा दर्द मिला तो हिम्मत हम

 सब की कैसे खत्म हो गई...क्या करे कुदरत,कभी-कभी इंसानो को आज़मा भी लिया करती है...जो उस

की दुनियां की खूबसूरती मे भी कमी-पेशी निकालता रहा और खुद को बदकिस्मत कहता रहा...तो फिर

आज उस के इतने से कहर से क्यों भयभीत हो गया...
टिक टिक यह घड़ी की है या दास्तां हमारे मासूम दिल की है...सुना रहे थे सुबह से इस को अपनी दास्तां..

वो पुरानी यादो के झरोखों से उड़ती हुई तेरे-मेरे प्यार की अजीब सी दास्तां...सुन कर इसे पायल मेरी

खनक गई,चूड़ियाँ उदास हो गई यह सोच कर कि मिलन की घड़ियो मे मैं क्यों तुम दोनों से दूर हो गई..

पायल बंधन मे बंधी थी इस कदर कि टूट के भी दोनों से दूर ना हो सकी..दास्तां की गवाह यह पायल

रही और चूड़ियों को सुना तेरी-मेरी दास्तां उस को शरमाने पे मजबूर कर गई...
यह महक तेरे प्यार की आज...बहुत जयदा क्यों आ रही है...देखते है इधर-उधर मगर यह तो तेरे यहाँ

से आ रही है...बंद है दरवाजे और तमाम खिड़कियां,फिर भी यह क्यों मन मेरा महका रही है...गज़ब

है यह प्यार का रैला भी..दिखता तो कुछ भी नहीं मगर चारों तरफ खुशबुओं के ढेले है..रोक ले जरा इस

प्यार की तेज़ महक को..कि रात का माहौल है और हम को जोरों की नींद आने को है...
कौन सा दिन किस बात का है...मौत से दूरी का या ज़िंदगी के करीब आने का...वल्लाह,दिन कैसा भी

हो मगर हर दिन है तो उस परवरदिगार का..सब से कहते आए है,कह रहे है...ज़िंदगी जीते-जी मर जीने

का नाम नहीं...यह वो गुलदस्ता है जिस मे हर सुबह और हर शाम,अपने अलग रंग मे ढली इक कहानी

इक नियामत है..हिम्मत छोड़ दी तो यू ही मर जाए गे..हिम्मत से जिए तो शायद ज़माने मे अपना कोई

नाम कर जाए गे...हंस ले पगले...मौत भी अपनी तो यह ज़िंदगी भी तो अपनी....
सफर इस ज़िंदगी का खूबसूरत रहा या दर्द की छाया से बंधा रहा...और जो सफर अब चल रहा है,

उस की अहमियत का वज़ूद क्या है...ज़िंदगियां सभी की कभी खूबसूरत होती है तो कभी दर्द की छाया

मे भी लिपटी होती है..हम ने कुछ अलग किया...ज़िंदगी को मुहब्बत दी मगर इस को शिकस्त देने के

लिए खुद से बेइंतिहा मुहब्बत भी की...कभी भीगे नैना तो साथ मे इन लबों को मुस्कुराने की खास वजह

भी दी...मुसीबतों ने सर उठाया तो दिन भर हंस कर बिताया और रात को तकिया खुल कर भिगो दिया...

अब क्या गलत किया..डर कर जीते जीते एक दिन बहादुरी का लबादा ओढ़ लिया..और सारी दुनिया को

अपने तरीके से जीना सिखा दिया..
इस मौत से खौफ जरा भी नहीं..साँसे जितनी लिखवा कर लाए है,उस की गिनती भी तो पता नहीं...बस

जी चाहता है,खूब लिखे और लिखते जाए..ज़िंदगी की कहानी से शुरू हो कर प्यार-मुहब्बत के लाखों

शब्दों को इन पन्नो पे उतारते जाए...शब्द जो मिटे गे नहीं..मुहब्बत जो आसमां-ज़मी से जाए गी नहीं..

ज़िंदा रह गए तो फिर भी शब्दों को उतारे गे..चले गए तो जहां को अपनी यादों और शब्दों मे बांध जाए

गे...यादों का तोहफा बन कर अपनी ''सरगोशियां'' मे ज़िंदा रह जाए गे...
ज़िंदगी की हिफाज़त चाहिए तो बाहर ना जा...खुद को साफ़-सुथरा रख,मैला ना रह...मुस्कुरा दिए

इस लाजवाब कहानी पे...हिफाज़त और सफाई,क्या बात है...पर बात की सच्चाई तो यही है कि जब

मन-रूह पहले ही शुद्ध होते..धर्म-कर्म के महत्त्व को निभाया होता तो विपदाएं सोच कर आती..गर आती

तो रूहे-ताकत देख इंसान की, इतना ना टिक पाती..आदर्श तो कोई भी नहीं मगर जज्बातों की लो

बुझाई ना होती...अब तो सिर्फ हाथ जोड़ दुआ ही दुआ कर सकते है....भगवान् इतने कठोर भी तो नहीं...

Friday 24 April 2020

गहराने को है रात मगर शाम फिर भी याद आती है...सुबह की धूप और रात के अँधेरे से पहले का समा..

हमारी खूबसूरत वजहों की खास वजह होती है...ढलता हुआ सूरज जब भी जाने को होता है,हम को उस

मे अक्सर इक उम्मीद नज़र आती है...वो उम्मीद जो हमारे जीने की वजह बन जाती है..यह सूरज बार-बार

यू ही ढलता रहे और हम को हमारी उम्मीद के करीब रखे...सराहे गे इस चाँद को भी कि इस को जाना है

सुबह और सूरज को फिर आना है..वही सूरज जिस के ढलने से पहले हमारी उम्मीद सांस लेती है...
नूर बरसता रहे मेरे चेहरे से,तुझे क्या लेना-देना है...तू बस मशगूल रह अपने काम मे,मेरी हसरतों से

तुझे क्या लेना-देना है...मौसम इस बहार का क्या पता कब आए मगर तुझ बेदर्दी को क्या करना है..

तू रखना संभाल के इस बेजान दौलत को,हमारी जीती-जागती जान को तुझे कब समझना है...जी तो

चाहता है यह कागज़ यह किताबे तेरी,फाड़ कर दरिया मे फैंक दे..उम्मीदों के चिराग जलाए और रात

को रौशन कर दे...नूर इस चेहरे का कहां रखे कि तेरी किसी फ़रियाद मे अब हम नहीं आते..
यादों का झरोखा और आप...कुछ खुशनुमा बाते और आप...दिल को छूने की कला और आप..कभी

दिल तोड़ने की सज़ा और आप..पल मे तोला और पल मे माशा,यही तो है आप...नाक के नोक पे हर

वक़्त गुस्सा रहना और महीनों बात ना करना...तक़रीर हमारी एक ना सुनना..वाह क्या गज़ब मुहब्बत

है...इस से तो नफरत भली जो दिखाई तो देती है..मगर यह गुस्सा असली है या फिर नकली,इस बात

की ही तो दुहाई है...
तेरे साथ कैसे चलते,हम ने तेरी परछाई को साथ ले लिया...गौर करने की बात यह रही कि उस ने हम को

पहचान लिया..यह खुशनुमा शाम और तेरी ही परछाई हमारे साथ है...हज़ारो वो बाते जो तुझ से ना कर

सके,हम परछाई के साथ अपनी परछाई मिला कर कर ले गे..अब तेरी क्या जरुरत कि इस की तौहीन

भी हम क़बूल कर ले गे..गरूर ना कर अपने आप पे कि अब हम अंधेरो से डरते नहीं...और रौशनी मे

यह हमारा साथ छोड़ती नहीं....
संस्कार भूले..आँखों की शर्म भूले..खुद से खुद के काम करने के लिए,सहारा ढूंढे..सम्मान के नाम पर

कुछ भी ना बोले...ना प्यार है ना लगाव है और ना रिश्तो मे कही ठहराव है..ना सहनशक्ति का कोई

नाम है...गुस्से और आक्रोश से भरा यहाँ हर इंसान है...सादा जीवन इक मज़ाक है..मंहगी-मंहगी

गाड़ियों के बिना जीवन ही बेकार है...हीरे-जेवरात ना होंगे तो समाज मे किसी का बड़ा नाम है...

दाल-रोटी के लिए प्रभु को शुक्राना देना,अब कितनो का काम है...परिंदो को मार देना एक आम सा

काम है..कितने विषैले तत्व फैले है जहान मे,फिर भी सोचे सतयुग कहां मेरे राम है..भगवान् के नियमो

पे चला जाता तो कलयुग क्यों आता...खुद को बदल ले गर अभी भी हर इंसान,महामारी का नहीं

होगा इस जहाँ मे कोई नाम....

Thursday 23 April 2020

''दुआ'' भोर की पहली किरण के साथ..आज के पन्नों पे पहला शब्द लिखा हम ने...इस यकीन के साथ

जो भी पढ़े यह दुआ सीधे उस के जीवन मे उतर जाए..दावा खुद के लिखने से जयदा उस परवरदिगार

की ताकत पे है...सिर्फ गुजारिश,पढ़ते पढ़ते इस ''दुआ'' शब्द को,दूजों के लिए भी मांगते जाइए...हम

भी ''दुआ'' मांगे,आप सब भी ''दुआ'' मांगे और बेहिसाब ज़िंदगियां इस दुःख-दर्द की काली छाया से

निजात पा जाए...
इतनी लम्बी ख़ामोशी और सितारों का झुरमुट है गहरा...सो जाए गी रात भी धीरे-धीरे,पर इन अँखियो

से नींद उड़ जाए गी..खुली अँखिया सपने देखे गी मगर सोने से फिर भी डरे गी..किताबी चेहरा है तेरा,

बस रात भर तुझी को पढ़े गी...जैसे कभी हम को पढ़ा था किसी ने,किताबी पन्नो की तरह..आज बाज़ी

उलटी है..खुली और बंद अँखियो से पढ़े गे उस किताब को,जो इम्तिहान कल हमारा ले गी...अब फेल

होंगे या पास,यह तो सितारों के झुरमुट से कभी जाने गे..मगर बात तो जागने की है,रात सो रही है

धीरे-धीरे मगर अँखियो को नींद कहां आने वाली है..
वो प्यार बेशुमार था या इश्क का जनून था...वो हुस्न बेमिसाल था या दोनों रूहों का मिलाप था..देह तो

सिर्फ देह थी और चेहरे इक पहचान थे.. तड़प जब पैदा हुई,आंसुओ का आना इबादत और ईमान था...

छुआ नहीं कभी मगर, सर से पांव तक दोनों का एक ही नाम था...एक रूप एक ही रंग,क्या उन मे कोई

एक राधा तो दूजा श्याम था...वो गहरे नैन जो कभी बोले नहीं..मगर समझने के लिए दूजे के नैन मशहूर

थे...यक़ीनन,वो प्यार बेशुमार था..इश्क का गहरा जनून था...
वो रजनीगंधा के फूल थे या उड़नखटोले से उतरे फ़रिश्तो के पैगाम थे...कुछ सुने तो कुछ अनसुने,कुछ

समझ से परे गूढ़ विद्वान थे..हम समझते रहे अब तक कि हम इस धरा के मामूली इंसान है..खास बहुत

कहते रहे लोग मगर हम खुद की धुन मे किसी करिश्मे की इंतज़ार मे थे..फ़रिश्ते मिले ऐसे जो कहते रहे,

वो भी इस धरा के इंसान है..कैसे पूछे इन फ़रिश्तो से ,गर आप धरा के इंसान है तो हम कौन सी जमीं

के इंसान है..बस खुद से यही सोचा,हम सिर्फ इन तमाम फ़रिश्तो के कदमों तले जीने वाले इक जीव,इक

कण..इक अनुमान है...
खुशनुमा फूल का अपनी पखुड़ियों को सुबह-साँझ यूँ बगीचे को समर्पित करना...वल्लाह,क्या नसीब

की बात है...अचानक से यू बगीचे पे फ़िदा होना,माशाअल्लाह खवाबों से हट कर इक खवाब है...

खुश है बहुत बगीचा कि उस का अंतर्मन सजने पे आया है..ज़ख्म भर रहो जैसे,खुदाई का गम जैसे

दूर जा रहा है..पर एक डर,क्या पता किसी रोज़ यह बहार पंखुड़ियों की बंद ना हो जाए..यह खूबसूरत

सा फूल किसी और बगीचे मे ना खिल जाए..मौसम को पहले भी बदलते देखा है,कुछ लफ्ज़ो को खुद पे

भारी होते भी देखा है..फिर भी बहार तो बहार है,साँझ की है या फिर सवेरे की..मगर बहार तो है..

Wednesday 22 April 2020

पर्दानशीं कहो या परदे मे रहने की बात करो...सवाल तो नज़र के झुकने का है...नज़रो का मयखाना

इतना नशीला है कि सकून भी हमारी ही बाहों मे पाओ गे..तितर-बितर रहते हो,किन खयालो मे जीते

हो...कदमों को चलाने की बात आए तो क्यों डगमगा जाते हो...कहते हो कुछ मगर करते हो कुछ..

कौन सी बस्ती से आए हो...फलसफा मुहब्बत का कहां पता होगा कि मुहब्बत को कहीं दरीचों मे

दफ़न कर आए हो....
भोर इतनी पावन मिली..क्या रात का आगाज़ उतना ही खूबसूरत होगा....कभी-कभी ही ऐसी हवाएं

उठाया करती है..उम्मीदों से परे सुबह होने का एहसास दिलाया करती है...सन्नाटे मे..गहन ख़ामोशी

मे..लबों को मुस्कुराने पे मजबूर कर देना...पांवो को जमीं पे उतारे या इन हाथों को सुबह की रौनक

के आगे ज़िंदा कर दे..इस रात को सुबह का नगीना समझे या चाँद के आने का इंतज़ार कर ले...

नियामतें किस को ऐसे मिला करती है,बेशक कभी-कभी...मगर मिला तो करती है...
ना जाने कब से जल की धारा की तरह बहते आए है...कितनी चट्टानों को राह मे छोड़ आए है..ठेस इस

दिल को ना लग जाए,धारा तेज़ बहुत तेज़ बहाते आए है..मगर दरियादिली इस जल-धारा की,सभी को

उन्ही के रहमों-करम पे बहुत पीछे छोड़ आए है..सफर बाकी है कितना,मंज़िल का रास्ता दूर है कितना..

यह जाने बगैर तेज़ बहुत तेज़ तलाश मे भागते आए है...पहचान अपनी कही भूल ना जाए,कुछ सोच कर

समंदर मे खुद को समाने चले आए है...

Tuesday 21 April 2020

दिल के झरोखे से देखी जो यह फ़िज़ा,दुआ के हाथ उस के आगे फैला दिए..अब मर्ज़ी तेरी है,हम ने तो ख़ाली झोली,खाली हाथ तेरे आगे फैला दिए..''शायरा''
लफ्ज़ सिर्फ दो ही थे मगर प्रभात की बेला मे दिल को छू गए...सुबह कभी-कभी इतनी खुशगवार भी

होती है,यह मानने पे मजबूर हो गए..तू मालिक है या खुदा मेरा..नाम चाहे हज़ारो हो तेरे, पर हम रूह

की नज़र तेरे सज़दे मे झुक गए...यह प्रभात की बेला आए बार-बार हर बार,हम को ख़ुशी के दो लम्हे

जो मिल गए...परवरदिगार तुझे मानते आए है सदा से,तेरे इस करिश्मे पे हम तेरे कायल हो गए..
कुदरत करती आई है करिश्मे,फिर आज क्यों मन भारी करते हो..जब साथ-साथ सारे है तो गम क्यों

करते हो..दूर-दूर है मगर दुआ तो एक है..हाथ जहा जुड़ते है वो मालिक भी तो सब का एक है...

इम्तिहान की घड़ी इम्तिहान देने के लिए ही तो आती है..पास होना है तो मेहनत भी करनी होगी..डर

के साँसे मत लेना सारे,कुदरत इतनी आसानी से सब कुछ माफ़ नहीं करती है..जरूर किए होंगे कर्म

ऐसे जो सज़ा के तौर पे हमारे सामने आए है..झुक जाना उस के आगे,गुनाह माफ़ किए भी जाते है..आओ

मिल-जल के कहे दाता से...नई आभा बिखेरो संसार मे..आखिर हम सब आप के ही बच्चे है...
यह ढलती शाम की हवा तेरे आने का सन्देश क्यों दे रही है..यह जान कर,अब रात अपने शबाब पे

आने को है,शाम की हवा का सन्देश क्यों दिल पे भारी है..उम्मीदों के चिराग नहीं बुझाए गे,दिए की

लो पूरी रात जलाए गे..चाँद पूरा खिला है आसमां मे आज..उसी को देख कर रात गुजार दे गे आज..

ज़िद किस बात की,हवा झूठ भी बता सकती है..संदेसा कभी-कभी गलत भी बता सकती है...
मुस्कुरा ना इतना मेरे लफ्ज़ो पे..यह लफ्ज़ तो आकाश-पाताल की सीमा से भी परे चल के आए है...

कुछ भीगे है नमी से तो कुछ पुखुड़ियो की तरह नाज़ुक और मासूम है...लफ्ज़ कोई भी उठा मगर इस

एहसास से,ठेस ना लगे इन को तेरी किसी बात से...मगरूर तो नहीं पर आत्म-सम्मानी है..ज़िंदगी के

झमेलों से परे खुद से ही बैगाने है..चोट लग जाए तो खुल कर रोते नहीं..ज़ज्बातो को कोई काटे तो रात

भर सोते नहीं...लफ्ज़ो को उतार दे इस जमीन पे कि यह आकाश-पाताल मोहलते भी रोज़ देते नहीं...
सुन तो ज़रा..यह मुहब्बत के बग़ीचे यह पनाहो के गलीचे..वो सुबह की नर्म धूप,वो ओस का कोमल

पत्तों से लिपटना..कमलनाल सी बाहें और मृगनैना,खुले गेसू और चेहरे पे तेरे नाम का लिखा होना...

क्यों सर से पाँव तक तेरी ही नज़र की तलाश रहना...बेखुदी मे तुझ को बार-बार पुकार लेना...यह

कोई अदा नहीं बस प्यार की तहजीब और तहरीर है..कहा समझ आए गी तुझे बातें मेरी,हम जादूगर

है अपने शहर के..जो सब कुछ भुला कर भी याद करवाना जानते है...
तूफ़ान आता है जितनी तेज़ी से..जाता भी अपनी मर्ज़ी से है..रुकता है जितने भी पल,सिखा कर बहुत

कुछ जाता है..क्यों तन्हाई मे भी इस का खलल चौंका देता है..दूर-दराज़ के संदेशो से मन बार-बार क्यों

घबराता है..जिन को कभी देखा तक नहीं,उन के लिए क्यों आंख से आंसू निकल आता है..जज़्बा जीने का

बनाए रखना,यह तूफ़ान जल्द ही चला जाए गा...बेबसी को अपना साथी ना बना कि बिंदास साँसे लेने

का दिन जल्द ही आए गा...

Monday 20 April 2020

जो हम ने देखा वो क्या था...मंदिर मे एक जलता हुआ दीया या नूर की चादर मे लिपटा कोई अपना

सा मसीहा..सच हमारे सामने था बेशक माने उस को कोई मसीहा या फिर रौशन दीया...तक़दीर दे

रही थी हम को आवाज़ और हम झुके थे मंदिर की उसी चौखट पे,जहा पाई हम ने वो मशाल जो दिखाने

वाली थी हमे हमारी कोई पहचान..करिश्मे होते है,सुना था हम ने..पर यू भी होगा हम को खबर ना थी..

चल रहे है आज उसी मशाल के पीछे-पीछे,जो शायद हमे ले जाए क्षितिज के उस पार के पीछे..
लिखने पे जो आए इस मासूम मुहब्बत पे,तो पन्ने खत्म हो जाए गे..इस के हर रूप-रंग को जो सजाए

गे इन पन्नो पे, तो पन्ने बेहद खूबसूरत हो जाए गे...यह शै है ही दिल-रूह के करीब इतनी,कोई बचना भी

चाहे तो इस के लफ्ज़ो को कैसे नकार पाए गे...भरे गे इस की इबादत का जज्बा इन पन्नो पे इतना कि

गलत सोच से दुनियाँ को उबार कर ही दम ले गे..मुहब्बत को समझने के लिए दिल का मासूम होना,उस

का पाकीज़गी से भरा होना मायने रखता है..हम जो लिखे लफ्ज़ और दिल सभी पाकीज़गी से ना भरे,

यह भला कैसे हो सकता है...
मुहब्बत का नशा...प्रेम की दीवानगी का वज़ूद..ख़त्म ना हो जाए...हम ने इन पन्नो पे फिर से मुहब्बत को

बिखेरा है..नफ़रत कही मुहब्बत से आगे ना निकल जाए,हम ने परिशुद्ध प्रेम को अपने इन पन्नो की

दहलीज़ पे उतारा है..दुनियाँ भी तो जाने कि मुहब्बत तो चट्टानों को भी पिघला देती है,शर्त उस के पाक

होने की है..नफ़रत का क्या है,यह तो हल्की सी खलिश हो तो खुल के चली आती है..गुजारिश भी है और

तागीद भी,मुहब्बत,प्रेम,प्यार का जज़्बा दफ़न ना होने देना..जितने सितारे है आसमां मे,उसी हद तक इस

को बिखेरते रहना..कभी नफ़रत का लावा बहने पे उतर आए तो मुहब्बत का जज़्बा जीत नफ़रत की

होने ना दे...
शाम दे रही है दस्तक ज़िंदगी को..घर के झरोखें से देख रहे है इस शाम को..कितनी अलग-थलग सी

यह शाम है..ना कही हंसी है ना मासूम बच्चों की किलकारियों से महकती हुई यह शाम है..सड़क बस

ख़ाली-ख़ाली है,जैसे दिल के दरवाजे से कोई लौट गया हो जैसे...परिंदे भी अब नज़र नहीं आते,शायद

खौफ उन मे भी आया है जैसे...धीमे से दिल ने खुद के दिल से कहा..क्या हम इंसा कभी पाक-साफ़ हो

पाए गे..क्या दिल के दरीचों मे कभी फूल दुबारा खिल पाए गे..जवाब कहां किस से पूछे..यहाँ हर इंसा

खुद की बनाई दुनियाँ मे ग़ुम खुद ही के साथ है..क्या कहे,यही तो इंसान है...
कैसे कहे कि दर्द जब भी सीमा के उस पार जाता है..रूह को जैसे छील जाता है..क़िताबों को पढ़े तो

दिल का कोना कहता है काश..सतयुग लौट आए..वो माटी की सुगंध लौट आए..वो सलोनी हवा फिर से

फिजाओं मे बिख़र जाए..परिशुद्ध प्रेम रिश्तो मे समा जाए..टूट के चाह लेना,राम-सीता कोई बन जाए..

फिर कोई राधा जन्म ले और अपने सलोने कृष्ण को समर्पित हो जाए..फिर से कोई गौरी बने और शिव

की अर्धाग्नि बन सतयुग का अर्थ बता जाए...ना कुछ लेने की चाह,बस प्रेम परिशुद्ध होता जाए...बस मे

हमारे कुछ भी नहीं,मगर दुआ करते है....सतयुग लौट आए...
जिस्मों के खेल भी कितने अजीब है...देह-व्यापार की दुनियाँ कितनी अजीब है...वो देह जो बिकती रही

चंद सिक्को मे,देह जिस की बोली लगती रही बाज़ारो मे..देह को लूटा गया,तार -तार कर इज़्ज़त का

सौदा हर रात होता रहा...कितनी सिसकियाँ तनहा होती रही..कितने आंसू उसी देह पे गिरते रहे...देह

तो देह है,सब भूल चुके आज कि इक रूह उन सब मे बसती है..भूख अन्न की उन को भी लगती है..वो

रूप तो फिर भी कुदरत का है..देह मैली कर दी बेशक पर रूह तो अभी भी निष्पाप है..

Sunday 19 April 2020

दुनियाँ जब बनाई आप ने..किस्मत की लकीरें भी लिखी आप ने..किस को किस वक़्त आना है और जाना

है..जो भी लिखा इतनी ख़ामोशी से लिखा कि आप की दुनियाँ के यह मिट्टी के पुतले कुछ समझ नहीं पाए..

जिन को दी साँसे जीने के लिए,जिन को तन दिया मेहनत करने के लिए..जिन को दिमाग दिया सब समझने

के लिए...वही पुतले खुद को दुनियाँ के मालिक समझ बैठे..खिलाफ चले आप के और खुद ही तबाह हो

बैठे...गुजारिश आप से है,बुद्धि इन की सही कर दो..बस जीने के लिए एक मौका सभी को दे दो...
सितारों से भरपूर है आज आसमाँ सारा..सितारा इन मे हमारा कोई भी नहीं..बैठे है शाम से इसी आंगन

मे,किसी इंतज़ार को साथ लिए...हर सितारे की अपनी एक कहानी है..कुछ रूमानी है तो कुछ परेशां

करने वाली है..अश्क बहाने का मन होता तो दास्तां इन की सुन लेते..हम ने चुपके से पुकारा चाँद को..

पुकार सुनते ही वो करीब हमारे आया...सिर्फ चाँद ही तो है जो कहां हमारा मान लेता है..हम जो रो दे

तो संग हमारे रो देता है..भरे है आज हम खुमारी मे,आंसू अपने आज छुपा दिए सितारों के भरे आंगन मे..

Saturday 18 April 2020

मौन समझे या फिर मौन की भाषा समझे...या फिर आज मौन की परिभाषा ही लिख दे...दिल के भावों

को जब बयां ना कर सके तो मौन ही काम आता है..मौन जब भी मौन होता है तो क्यों आँखों के रास्ते

बह जाता है...ज़ज्बात गहरे है या ज़ख़्मी है या यह दर्द-दुःख देख कर रूह भी घायल है...धरा के छोटे

से इंसान है..कौन कहाँ बेघर हो गया,कौन किस घर मे भूखा ही सो गया..कोई अपनों से मिलने को ही

तरस गया..प्रभु,अब तो दया करो..हम बहुत मामूली इंसान है,बेशक खुद को समझते खास है..दर पे

मिल के हम सारे शीश नवाते है..अपनी भूलों के लिए माफ़ी भी चाहते है...दया करो प्रभु...
                                   ''एक छोटी सी याद अपने बाऊ जी के नाम''

आज यादों  के झरोखों से क्या मिला मुझ को..एक छोटी गुड्डी नटखट सी..जो हाथ ना आती थी किसी के ..कुछ खेल थे मेरे बचपन के,रंगीन सपने थे आप के साथ कुछ और साल रहने के...बीमार माँ और आप का डर--ऐसा डर कि गुड्डी का क्या होगा..मुझे खिलने से पहले क्यों अपने घर से विदा कर दिया आप ने..मैंने  तो आप से कुछ माँगा भी नहीं...कोई ख्वाइशे भी नहीं थी.. आप के आंगन मे जो भी मिला,वो फिर कभी नहीं मिला..सँस्कारो का,अनगिनत यादों का तोहफा आज भी हल पल,पल-पल साथ रहता है..अल्हड़पन से भरी आप की गुड्डी अचानक से बड़ी हो गई..धीरे-धीरे ज़िम्मेदारियों मे ग़ुम आप के पास आने को तरस गई..बहुत कुछ रहा ऐसा जो किसी को बता भी नहीं सकी......................आज आप की याद क्यों आ रही है इतनी जयदा कि शब्दों मे नमी घुल रही है जैसे..माँ मेरे रूप पे वारी-वारी जाती थी..उसे तो मेरे सिवा कोई और खूबसूरत ना लगती थी..जी चाहता है आज खूब लिखू,पर आंसू इज़ाज़त नहीं देते....सँस्कारो की पोटली साथ लिए.........आप की छोटी सी गुड्डी...

Friday 17 April 2020

अपनी गहरी काली आँखों की सच्चाई ख़त्म ना करना,कैसे समझाए तुझे कि इन्ही मे मेरा रब बसता है..

दुनियाँ यह हम को कभी भाई ही नहीं पर कान्हा मेरे,तेरे इन नैनो ने हमारे दिल और रूह को सच्चाई

अपनी कभी दिखाई थी..भरोसे की नींव नन्ही-नन्ही परछाइयों से कभी ख़त्म मत करना..कान्हा,दुनियाँ

मे ऐसी सच्ची आंखे हम कभी ना ढूंढ पाए है..आंखे बहुत देखी पर ऐसी पाक नमी ना देख पाए है..जो

गन्दी दुनियाँ मे हम को ग्रंथो की झलक दिखा दे..सिर्फ तेरी इन्ही आँखों से ही जान पाए है...
छन छन इतनी जयदा क्यों कर रही मेरी पायल आज...आवाज़ का जादू महक रहा है चारों और क्यों

आज...आज़ाद कर रहे है इसे इस के बंधन से आज...कैद कर दे गे इसे बक्से मे आज...तन्हाई मे अक्सर

यह रुला देती है मुझे...जब तल्क़ होश मे आते है तो सुबह दिखा देती है खास...तू कभी-कभी मुझे बहुत

काम की लगती है पर जब तू सताती है तो मेरी नज़रो से उतर जाती है...संदेशा पिया का आता है तो तुझे

चूम लेते है ..मगर तन्हाई के मौसम मे जब भी तू खनकी तो बक्से मे बंद करे गे आज....
                     ''दास्ताँ इक ऐसी भी''

          ''  प्रेम की पराकाष्ठा की सीमा..ऐसी भी''
              ''कोई नाता नहीं पर नाता है''
               ''देखा नहीं कभी,मगर रोज़ देखा है''
                 ''दीदार को तरस जाना,मगर दीदार रोज़ करना''
                   ''प्रेम समझना,मगर फिर भी तकरार का बेवजह होना''
                    ''साथ जिए नहीं कभी,मगर साथ-साथ रहना''
                      ''खवाहिश वो आखिरी,इक दूजे की बाहो मे दम तोड़ देना''
                        ''फिर होंगे साथ-साथ,इस जन्म के बाद कितने जन्म अभी बाकी है''
                     
                                    ''एक दास्ताँ ऐसी भी''

आवारा बादल तो नहीं जो कही पे भी बरस जाए गे...नूर है तेरे ही चेहरे का,तुझ पर ही बरस जाए गे...

बरस कर खाली-खाली क्यों होना,इम्तिहान के दिन तो अब आए गे...गर्म हवाएं होगी मगर हम कही

भी नज़र ना आए गे..पुकार तेरी सुन कर,मन हुआ तो झलक एक अपनी दिखला जाए गे...थम-थम के

बरसना भी क्या बरसना है...हम तो वो बादल है जो बिना छाए आसमाँ पे..अपनी मर्ज़ी के मालिक है..

आवारा नहीं मगर कही भी बरस जाए, पर अपनी बात के धनी है...

Thursday 16 April 2020

पलक के मोती पलक पे ही ठहरा दिए...क्या पता कल तू फिर से कोई और नमी इन को दे जाए...यह

नैना बिन काजल रहे गे तब तक,जब तल्क़ तू इन मे हमेशा की ख़ुशी ना भर जाए..आसमान को देखे

तो समझ आता है,यह बरसों से अंधेरो-उजालों मे रहता है...समंदर की सतह क्या जाने कि यह पल-पल

रंग बदलता है...रहना है तो रह पावन नदिया की तरह जिस का नीर मैला कभी ना होता है...हज़ारो

चट्टान भले टकराती रहे,उस को किसी से कोई वास्ता ना रखना होता है...
भरभरा कर ना गिर जाए किसी कमजोर दीवार की तरह..हम ने अश्कों का दामन थाम लिया...अक्सर

यही तो है जो हम को हम से जयदा प्यार करते है..हम दुखी हो तो यह साथ हमारे रो देते है...खिल जाए

तो भी साथ हमारे हंस देते है..लम्बे सफर पे जाने की सोचे तो यही है जो अक्सर राह हमारी रोक लेते है..

याद दिलाते है,मकसद को भुलाना होगा तुम्हारे लिए मुमकिन,पर हम जो हर पल साथ तुम्हारे चलते आए

है..कैसे भूले कि तेरी ज़िंदगी का मकसद अधूरा है अभी..उस को निभा दे शिद्दत से,उस के बाद अल्लाह

की मर्ज़ी है...
बगीचे मे खिले है फूल हज़ारो...मगर हर फूल गुलाब हो,हरगिज़ नहीं...पर जो गुलाब खुद मे इक गुलाब

से जयदा इक हिज़ाब हो..उस की क्या बात हो..हर फूल को गुलाब समझ कर उस गुलाब की तौहीन ना

कर..जो धरा पे खिला सिर्फ महकाने के लिए,उस की खुशबू का एहसास तो कर...नाज़ुक है खुद से भी

जयदा,हाथ से छू कर उस को मैला ना कर...यह पखुड़िया कितनी पाक है,जानने के लिए जज्बा अपना

बहुत खास रख...तागीद बार-बार वही,हर फूल गुलाब नहीं....गुलाब नहीं...
घने बेहद घने बादलों से घिरे इस चाँद के क्या कहने...पुकारे तुझे कितना कि तेरे रंग है बड़े निराले...

क्या झूठ कहाँ हम ने कि तुझे खुद पे बहुत गुमान है..इतरा ना इतना कि मेरे बिना तू बेजान है...मेरी

आगोश मे ही बार-बार आना है तुझ को..मेरे बिना तेरा गुज़ारा ही कहाँ है..तुझे चांदनी की कसम,सदियों

तल्क़ तू भी कायम है और तेरी चांदनी भी..रहना तुझे भी आसमां मे है और मुझे सदियों तुझे ही निहारना

है..फिर यू बादलों मे छिप कर अपनी अहमियत ना जता..याद रख,चांदनी रूठी तो फिर तू रहे गा कही

का भी नहीं...चांदनी का ग़ुम होना तू सह पाए गा भी नहीं...
दूर दूर जहा तक जाती है यह नज़र..दौर मुश्किलों का ही दिखता है..मगर करे क्या,दिल बहुत ही

दुखता है...दुआ करते है पल-पल,ज़िंदगियाँ सलामत सब की रहे..दवा से जयदा दुआ की ताकत होती

है..फिर हम जो रूह से कहे,वो बात ही कुछ और होती है..परवरदिगार से बहुत कम माँगा करते है..

खुद से जयदा दूसरों की फ़िक्र करते है...दे के हवाला अपनी साँसों का,हम दवा से जयदा दुआ ही मांग

लिया करते है...

Sunday 5 April 2020

कहता है तो कहता रहे यह जहाँ सारा कि हम गरूर वाले है..खुद मे रहते है मस्त-वयस्त,शब्दों के जाल

बुनते रहते है..ना किसी के लेने मे है ना किसी के देने मे,तो क्या गलत करते है...किसी को कुछ नहीं

कहते,मगर खुद भी अब किसी की ना सुनते है..छोटी सी दुनियाँ है हमारी,उसी मे ज़िंदा और खुश रहते

है..मांगते किसी से कुछ नहीं,बहुत ही स्वाभिमानी है..ग़ल्त करते नहीं तो ग़ल्त सुनते भी नहीं..दिया जिस

ने बहुत गहरा दर्द,पास उस के फिर जाते नहीं..खुद रो लिए खुद फिर से उठ खड़े हुए..इस को गरूर

कहे जहाँ तो बेशक कहता रहे...
राहें आगे बहुत कठिन बेहद कठिन होने वाली है...बहुत दूर जहा तक जाती है नज़र,अंधेरो की परछाई

आने वाली है...पूछे कोई,क्या हम को डर लगता है...जवाब हमेशा से एक ही देते आए है..ज़िंदगी और

मौत मे सिर्फ इक साँस का फर्क होता है...धागा है इतना कच्चा कि तोड़ने मे वक़्त कहा लगता है..जब

इतना सह कर इतनी दूर निकल आए है..तो सफर अब बचा ही कितना है...कितनो को हंसा दिया तो

कितनो को जीवन जीना तक सीखा दिया...फर्क इतना रहा,कोई सब कुछ सीख गया और हमें शुक्रिया

कह गया..मगर कोई सीखा तो मगर जाते-जाते हमी को दुःख दे गया...
चाहते गर तो सारा आसमां हम को मिल सकता था..एक बार मुस्कुरा देते तो जिस को चाहते,वो हम पे

जान लुटा सकता था...थोड़ा ईमान से गिर जाते तो हीरे-जेवरात के ख़ज़ाने हम को मिल सकते थे..

दौलत का अम्बार इतना होता कि सारा जन्म ऐशो-आराम से गुजार सकते थे...माँ हमेशा कहा करती

थी,इंसा वो नहीं होता जो बिक जाया करता है..जो ग़ुरबत को भी ख़ुशी-ख़ुशी उस की रज़ा मान ले,वो

हर इम्तिहान मे पास हो जाया करता है...हर पल अपनी माँ की इस बात को याद रखते है..दर्द मिले या

ग़ुरबत...रज़ा मान मालिक की इस ज़िंदगी को जी लिया करते है...

Thursday 2 April 2020

यह सुबह की धूप क्यों चुभने लगी है आज...शिकन आ रही है क्यों इस चेहरे पे आज...कुछ तो होने वाला

है आज...या तो आज सूरज की तपिश ज्यादा से कुछ और ज्यादा होगी..या फिर सितारों के झुरमुट मे

रहने वाले चाँद को रोने की जरुरत और ज्यादा होगी..अब यह तो रूह की आवाज़ है..इस को कौन रोक

सकता है..जब हम से यह कलम नहीं रूकती तो चाँद-सूरज की क्या बिसात है..पटक दे दोनों को इसी

धरा पे,क्यों मर्ज़ी हमारी यह चाहती है आज...
ज़िद पे आ गए तो कुछ भी कर जाए गे...बर्बादी पे आ गए तो खुद को ही मिटा जाए गे...ऐसे है या फिर

वैसे है,अब क्या फर्क पड़ता है..नज़ारा हमारा देख फिर पछताना नहीं..हम तो धुन के पक्के है,यह तुम

को बताना जरुरी ही नहीं..आँखों से अब आंसू टपके या खून की बूंदे,कोई असर हम पर नहीं..जिल्लत

क्यों सही तेरी चुप्पी की,हम कोई खानाबदोश तो नहीं...कदम बढ़ा दिए आज से बर्बादी की तरफ,अब 

अंजाम होगा क्या यह बताना जरुरी ही नहीं....
यह किताब ''सरगोशियां'' की है..जहां हर रंग रचा हम ने..मुनासिब से भी जयदा मुनासिब लिखने का

जज़्बा भर दिया हम ने..कही बिखरा दर्द तो कही प्यार उभर सामने पन्नो पे निख़र आया..अब कौन सी

ताकत का है यह असर जो पन्नो को जरुरत से भी ज्यदा भरने पे हावी हो आया..हम ने तो सिर्फ कलम

पकड़ी,यह कलम कब कैसे क्या लिखती रही..समझ हम को भी कुछ ना आया...ना जाने क्यों यह कलम

थकती नहीं..कब तक लिखे गी,यह भी बताती नहीं..???
कदमों मे जरूर झुक जाते,गर खता हमारी होती..हर दस्तूर बदल देते,गर खता हमारी होती...सुई चुभी

है सीने मे हमारे फिर भी गुफ्तगू को राज़ी है..तूफान से गुजर रहे है मगर फिर भी बरसने को तैयार है..

ज़ख्म भरे गा कैसे,रिसाव रुका नहीं अब तक..गल्ती तो गल्ती है,याद ताउम्र रखे गे..बेशक साँसे रहे या

फिर टूटे,परवाह नहीं हम को इन की..कांच का वो पैरों मे चुभना,कहाँ भूले है..देखते है जब भी उस निशाँ

को, फिर से सब कुछ याद कर लेते है....
जिस्म हज़ारो बेजान हो जाए,इस से पहले अपनी दया का सागर खोल दे मेरे दाता...फिर से लौटा दे

सब की खुशियाँ,गम के घोर बादल हटा दे मेरे दाता...जिस्मों से रूहे निकल कर कब वापिस आती है..

सुन रहा है ना तू...इन जिस्मों को रहने दे अभी और ज़िंदा कि सपने और अरमान सभी के बाकी होंगे...

कितने फ़र्ज़ निभाने बाक़ी है,कितने साथ जीने की खाव्हिश लिए तेरे सामने हाथ जोड़े बेबस और खाली

खाली है..हाथ जोड़ दुआ कर रहे तेरे आगे मालिक मेरे..अपनी नाराज़गी को हटा ले अब तो दिल से अपने..
आसमाँ साफ़ हो जा पहले की तरह,दुनियाँ सांस ले ले पहले की तरह...बहुत हुआ तेरा कहर,अब तो

खुल के इतना बरस..निश्छल हो जाए हवा सारी,मुस्कुराए फिर से साँसे सारी...गुनाह इन का माफ़ कर,

तेरी मर्ज़ी के बिना तो मालिक इक पत्ता भी नहीं हिलता..फिर इन हवाओं का खौफ कम कैसे होगा..

इंतज़ार और सिर्फ इंतज़ार तेरी रहमत का है ...रख दे अपना हाथ सर पे सभी के,झुक रहे हम सभी

की सलामती के लिए...
इस दुनियाँ मे कौन किस को याद रखता है..लाखों आते है और हज़ारो चले भी जाते है...कहने को हम

बेहद ही मामूली से इंसान रहे है..कुछ भी ऐसा नहीं हम मे कि दुनियाँ हम को हमारे जाने के बाद याद

रखे...बस लफ्ज़ो की दुनियाँ मे आ गए और कुछ पहचान बन गए..किसी ने लफ्ज़ो को समझा तो किसी

ने पढ़ कर भुला दिया..''सरगोशियां'' ऐसा ग्रन्थ रच डाला हम ने रूह की आवाज़ से..लफ्ज़ो को कैद कर

दिया अपने ही हाथो से इस ''सरगोशियां''मे ..दुनियाँ याद रखे हम को,ऐसा एक नेक काम कर दिया हम ने..

Wednesday 1 April 2020

अपने बाबा की लाड़ली और माँ की पलकों की लड़ी...कितना उड़ी कौन जाने..कोई कहता रहा.परी

हो तुम..कोई परियों की रानी साबित करता रहा...किसी को हम भाए इतना कि चांदनी नाम दे दिया..

इज़्ज़त के फूल बिछाए हमारी राहों मे और हम को आसमाँ का मासूम परिंदा बना दिया..सच तो यही रहा

हम ने जो किया,जितना भी किया..बाबा-माँ के कहने पे किया..किसी ने समझा इसे और कोई हमी को

अनपढ़ बता हमारे संस्कारो का मज़ाक बना गया..
झांझर सुना चुकी अपना आदेश..कंगना सुना रहे अपनी दास्तान..करधनी को कोई लेना-देना नहीं रहा,

अब कोई सी सुबह और कौन सी शाम..पायल अब बक्से मे बंद है..कानो ने सुना और अनसुना कर दिया..

यह तो दुनियाँ की रीत है,दिलो से खेलना..जज्बातों को रौंदना..रूह ने कहाँ,जो मैंने कह दिया वो अब

दुबारा ना दोहराना है..दिल जो अब किसी की सुनता ही नहीं..ज़मीर जो लिख के दुबारा कुछ मिटाता ही

नहीं..इन साँसों को मंजूरी किसी से लेनी नहीं..आज़ाद है अपने हर फैसले के लिए......
चुन रहे है हर आती-जाती सांस के साथ..वो हर ख़ुशी,जो हमारे साथ रही..वो हर लम्हा जो हम को

जीवन देता रहा..इन साँसों का क्या,यह दग़ा कभी भी दे जाया करती है..पर वो खुशनुमा पल बेशक

कभी भी ना लौटे,मगर दिल को बहुत सकून दे जाया करते है..मुस्कुरा के जीना है,यह जीवन कब बार

बार मिलने वाला है..दर्द की चादर को समेटे है दिल मे ही,इस को भी दुबारा ना आने देना है..चार साँसे

हो अब या दो साँसे हो अब..बिंदास बेफिक्र ही अब जीना है...
सकून से सोने के लिए,ज़मीर का साफ़ रहना बहुत जरुरी है...दौलत बेशक कम हो मगर जान-जहान

का सही रहना बहुत जरुरी है...मिज़ाज़ बदलते रहते है मौसम के..जो खुद पे कोई असर ना छोड़े,यह

खुद की ताकत का होना बहुत जरुरी है...इम्तिहान कितने और बाकी है,मगर जीत अपनी होना बहुत

जरुरी है...आखिरी सांस मुबारक हो कर निकले,यह तो बहुत से बहुत जरुरी है...
किस्मत को अपनी सहेली बना कर साथ लाई है तू ऐ ज़िंदगी...हिम्मत थी तो अकेले आती,क्यों साथ की

जरुरत तुझे पड़ गई ऐ ज़िंदगी..हम ने खुद को अकेले जीना सीखा है..तेरी तरह किसी के सहारे के साथ

नहीं चलते ऐ ज़िंदगी..डर कर जीना कब सीखा है..तुझे और तेरी सहेली को सबक देने के लिए,कैद कर

दिया अपनी ''सरगोशियां'' के पन्नों मे..तू बेशक इस दुनियाँ से हम को ले जाए,मगर तुम दोनों कैद रहो

गी ''सरगोशियां'' मे हमारी..हमारे जाने के बाद,हज़ारों नस्लें आए गी..''सरगोशियां'' को मिटा दे,इतना दम

तो तुम दोनों मे नहीं..तुझे संग किस्मत के जीतना है कैसे,यह भी हम जाने से पहले नस्लों को लिख

कर दे जाए गे....

दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का.... .....

 दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का,हम ने अपने लबो को सिल लिया...कुछ कहते नहीं अब इस ज़माने  से कि इन से कहने को अब बाकी रह क्या गया...नज़रे चु...