Tuesday 22 September 2020

 वो पाषाण था..पत्थर था..शायद भगवान् ने बनाया ही उस को पत्थर-कंकर का था...बुद्धि थी मगर कुछ 


समझ ना थी..बात गर कुछ समझ आती थी तो दिमाग मे ना जाती थी..होंठ थे सिले हुए,उतने ही खुले 


जितना ग़लत कहने के लिए ही थे बने...जज़्बात के मायने भी उतने ही थे जितने खुद को सकून देते 


थे..हंसना कभी सीखा नहीं,शायद पत्थर पाषाण कभी हँसते ही ना थे...पूछा उस मालिक से, कौन सी 


माटी थी ऐसी जो तेरे काम की ना थी..बना दिया,कोई बात नहीं...पर मालिक इस को इस धरा पे क्यों 


भेजा..गर भेजा तो जज़्बात का टोकरा साथ क्यों ना भेजा...


दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का.... .....

 दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का,हम ने अपने लबो को सिल लिया...कुछ कहते नहीं अब इस ज़माने  से कि इन से कहने को अब बाकी रह क्या गया...नज़रे चु...