वो पाषाण था..पत्थर था..शायद भगवान् ने बनाया ही उस को पत्थर-कंकर का था...बुद्धि थी मगर कुछ
समझ ना थी..बात गर कुछ समझ आती थी तो दिमाग मे ना जाती थी..होंठ थे सिले हुए,उतने ही खुले
जितना ग़लत कहने के लिए ही थे बने...जज़्बात के मायने भी उतने ही थे जितने खुद को सकून देते
थे..हंसना कभी सीखा नहीं,शायद पत्थर पाषाण कभी हँसते ही ना थे...पूछा उस मालिक से, कौन सी
माटी थी ऐसी जो तेरे काम की ना थी..बना दिया,कोई बात नहीं...पर मालिक इस को इस धरा पे क्यों
भेजा..गर भेजा तो जज़्बात का टोकरा साथ क्यों ना भेजा...