दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का,हम ने अपने लबो को सिल लिया...कुछ कहते नहीं अब इस ज़माने
से कि इन से कहने को अब बाकी रह क्या गया...नज़रे चुराए क्यों भला इस ज़माने से..डर के भी क्यों
जिए इन के तानों से...बेफिक्र है पर तन्हा तो नहीं...ज़िद पे है मगर अल्हड़ तो नहीं...तू लौट के तो आ
अपनी दुनियां से,पास मेरे....देखना तब ज़माने की रंजिशे कम हो जाए गी..यह सिले लब फिर से
गुनगुनाएं गे और सजना मेरे,बहारों के मौसम फिर से इंदरधनुष बनाए गे .....