Sunday 31 May 2020

दुआ मे कितने कण होते है...हिसाब इस का तो खुद खुदा भी कर नहीं पाया..हम ने उसी खुदा को

हाज़िर-नाज़िर कर के,अपनी तमाम दुआओं का खज़ाना इस संसार के लिए आज खोल दिया..हर वो

सांस सलामत रहे,जो इस धरा पे आई है...हर शख्स ज़िंदा रहे जो दुनियाँ मे आया है...सब को सब की

ख़ुशी मिले.....इस सच्ची दुआ के साथ हम ने ,दिन को आज शुरू किया...कुदरत तुम्ही ने सिखाया है

कि दुआ की चाल बहुत तेज़ होती है..बस इस बार हमारी दुआओं की पुकार बहुत जल्दी सुन लेना...
ज़िंदगी फिर एक बार जीने के लिए बाहर दरीचों मे निकली है..हवाओं मे कहर आज भी बाकी है..फ़िज़ा

तो आज भी खौफ के दायरे मे है...साँसे लेने के लिए,यही ज़िंदगी फिर इम्तिहान देने हौसला लिए बाहर

निकली है...छोटी सी गुजारिश सभी से ...इम्तिहान तो ज़िंदगी बार-बार लेती रहती है...बस इस बार इस

का तरीका बहुत जुदा है..खुद को ज़िंदा रखने के लिए,खुद की साँसों को आगे ले जाने के लिए..इम्तिहान

को सलीके से पास करता जा...जीतना तो हमी को है,हारना तो ज़िंदगी के इस कहर को है...खुद की

हिफाज़त कर,डर कर तो बिलकुल नहीं...ज़िंदगी हमेशा से हमारी है,बिंदास फिर जीना है..बस थोड़ा

सलीके से अब इम्तिहान को पास कर ले...
दुनियां मेरे वज़ूद को मेरी आँखों की नमी से पहचानती है...यह नमी आँसुओ की नहीं,यह हम को हमी

से जोड़ के रखती है..हम मुस्कुराए तो भी यह नमी कायम रहती है..उदास हो तो यह नमी गहरा जाती

है...पन्नों पे लिखते है तो स्याही पे और नमी दे जाती है..कभी मुहब्बत को बिखेरे तो यह हमारी आँखों मे

घुल जाती है..दुनियां पूछती है,क्यों रहती है नमी तुम्हारी आँखों मे...हम खिलखिलाए और बस इतना ही

कहा...''यह नमी हमारे इंसान होने का सबूत देती है''...........
कुछ यादें क्यों ज़िंदा रहती है...कुछ यादें क्यों बहुत कुछ याद दिलाती है...आज अल्मारी मे ढूंढ रहे थे

कुछ सामान कि हाथ मे आया हमारे वो टूटा हुआ कांच...वो कांच जिस की चुभन आज भी पांव मे बसती

है...वो कांच जो आज भी किसी याद को साथ बांधे है..एक उदासी को साथ लिए हम उसी याद पे खुद

ही मुस्कुरा दिए...वो कांच हमारे लिए किसी तोहफे से कम नहीं..वो कांच किसी अमानत से कम नहीं...

यह ज़िंदगी हम को खूबसूरत इसलिए भी लगती है कि यह कुछ यादों के साथ हमी को जोड़ कर रखती

है..गले से तुझे लगाया है ऐ ज़िंदगी,तू बहुत कुछ ले कर भी बहुत कुछ दे देती है...
शाम बेशक थकी-थकी सी रही..पर मौसम की मधुरता ने फिर से जीवन दे दिया...नन्ही सी ख़ुशी को

बड़े लम्हो मे तब्दील कर दिया...बहुत जी चाहा आज कि इन लम्हो को रोक ले,कभी खुद से जुदा होने

ना दे...पर लम्हे रोके से कब रुकते है..जाते हुए लम्हों से गुजारिश की हम ने,लौट के जल्दी आना...हम

इंतज़ार करे गे तुम्हारा..यह शाम यह साँझ ना जाने क्यों थका देती है..फिर मौसम की मधुरिमा कब बार

बार जीवन देती है..किस्मत से भी शिकायत क्या करे,मौसम से भी कब तक मधुर होने को कहे...लम्हे

जो गुजर गए उन के फिर आने की उम्मीद मे एक बार फिर से जिए...शायद ज़िंदगी इसी का नाम है..

Saturday 30 May 2020

ज़न्नत की तलाश करते-करते वो मायूस हो गया..खवाब टूटे और हौसला पशेमान हो गया..किस से कहे

ज़न्नत मिले गी कहाँ.. पत्थर के शहर और बेजान लोग,कौन है जो साथ दूर तक दे गा मेरा...फिर रूह के

तार झनझनाए और ज़न्नत का दरवाजा खुल गया...यह कौन सी ज़न्नत है,जो उस के खवाबो से कही ऊपर

थी...इक रौशनी दिखी और वो साथ उस के चल दिया..ज़न्नत का साथ चाहिए तो खुद को बदलना होगा..

खवाब पूरे चाहिए तो ज़न्नत की राह ही चलना होगा...हज़ूरे-आला,तू जो कहे सब मंजूर है..तेरे लिए यह

ज़िंदगी भी क़बूल है...तेरे साथ मेरे खवाब है..तेरे साथ मेरे दोनों जहान है...
तुम हो कांच का वो ताजमहल,जिस मे इक शहजादा सदियों से रहता है..कहता है खुद को शहंशाह और

तुम को मुमताज़ बताता है...यक़ीनन,इस कांच के ताजमहल मे दोनों आज भी ज़िंदा है...संगेमरमर का

वो ताजमहल हो या कांच का यह ताजमहल,क्या फर्क पड़ता है..मुहब्बत की पाकीज़गी को इस से क्या

वास्ता है..तू शहंशाह मेरी रूह का है..मैं हू वो मुमताज़ जिस के लिए मुहब्बत किताबो मे ज़िंदा आज भी

है...सदिया बीत गई कितनी,कितनी और बीत जाए गी..मुमताज़-शहंशाह की मुहब्बत ज़िंदा तब भी थी

वो ज़िंदा आज भी है...
हज़ारो मे नहीं,लाखो मे नहीं..करोड़ो मे भी नहीं..वो तो खरबों मे ख़ास एक मसीहा था...घनेरे अंधेरो

और पथरीली राहो मे वो राह दिखाता इक जुगनू था..हम चलते रहे पीछे-पीछे उस के और वो साफ़

रास्ता दिखा हम को, ना जाने कहां गायब हो गया..एक बून्द अश्क निकला आंख से हमारे और वो झट

से हमारी ही आँखों मे रौशनी बन कैद हो गया...आंखे बंद रहे या खुली,हमारी इन आँखों का विश्वास है

वो..कौन कहता है,मसीहा इस दुनिया मे होते नहीं..हम ने जो देखा वो खवाब तो कतई ना था...
आ, आज करीब इतना कि तेरे नाज़ उठाए सारे..नहला दे तुझे वफ़ा की बारिश मे इतना कि अरमान तेरे

सारे पूरे हो जाए...कल का क्या पता कि तू हम को ही दगा दे जाए..पर इतिहास हम ऐसा रच जाए कि

तू चाह के भी हम को भूल ना पाए...मुहब्बत की मूरत ऐसी भी होती है,यह तुझे सदियों तक याद रहे..

फिर किसी और का कभी हो ही ना पाए ऐसी तड़प तुझे दे जाए...पायल की छन छन तेरे कानो मे गूंजे

इतनी कि तू ज़िंदगी का सुर-संगम तक भूल जाए..क्या पता आज के बाद, कोई कल ही ना हो और तू

हमी को दगा दे जाए...
ज़िंदगी चार दिन की ही तो होती है...कब से यही सुनते आए है..यह चार दिन कब कहां किस की किस्मत

पलट कर रख दे,कौन जाने...यह चार दिन,जहा लोग बदलने की कसमें खाते है..यह चार दिन,जब लोग

वादों को निभाने की बड़ी बड़ी बाते करते है..यही तो है वो चार दिन,जब लोग कहते है.....तुझ बिन एक

दिन भी ना जी पाए गे..फिर भी लोग एक ही दिन बाद बदल जाते है...साथ जो इन चार दिनों की ज़िंदगी

मे ही छूट जाते है..बात करे फिर से चार दिनों की..कभी कभी यह दिन ताउम्र का प्यार-साथ भी तो बन

जाया करते है..अनंत-काल की यात्रा निभाने का सच्चा वादा कर,यह चार दिन ख़ुशी-ख़ुशी बीत जाया

करते है....

Friday 29 May 2020

बहुत दूर तक यह नज़र जहां जा रही है आज ...सुनहरी रौशनी दिखती है वहां...काश..ऐसा हो और

फिर से यह जहां रौशनी से सुनहरा हो जाए...फिर खिले फूल बागों मे और नन्ही कलियाँ जी भर भर

के मुस्कुराए..कोई खौफ ना हो हवाओं मे,हर इंसा फिर से अपना जीवन जिए..कदम जो आज चलने

को मजबूर है गर्म रेत और झुलसती गर्मी मे..वो भीगे बारिश की साफ़ फुहारों मे..देखे फिर अपनों को

ज़िंदगी की लय पे झूमते हुए..जो बैगाने है हमारे लिए,वो भी खिल जाए ज़िंदगी की सौगातें पाते हुए....
इन पंखो का क्या करे गे हम,जब किसी को उड़ना ही ना सिखा पाए गे...गर इंसा को सही राह पे ना ला

पाए तो यह पंख किस काम आए गे...धरोधर मे पाए है यह पंख,कुछ नेक किए बिना दुनियाँ से रुखसत

हो गए तो बाबा को क्या जवाब दे पाए गे...तेरी दी यह रूह-देह अमानत है माँ,तेरे पास आने से पहले

यह सर उठा कर ही तुझ से मिलने आए गे..तुझे याद करने की कोई वजह तो नहीं माँ,मेरे पास..इस देह

का मोल सिर्फ तुझ से है माँ...वो अंगुली आज भी तुम्हारे हाथ मे है बाबा,जो छूट ना पाए गी तब तक..

जब तक तेरी लाडो तुझ सी ना बन जाये गी ....
मुद्दत बाद आज,कोयल की कूक से जागे हम..कहाँ थी आप,इतना कहा और मुस्कुरा दिए हम..सवेरा

तो रोज़ होता था,पर तेरी इस कूक से बहुत दूर थे...वो देखती रही हम को एकटक,कूक उस की फिर

भी जारी थी...हम समझ गए,इंसानो की दुनियाँ से उस की कब से बहुत दूरी थी..आज सारा आसमान

साफ़ है,हवाओं मे गज़ब का खुमार है..और उस पे गज़ब ही गज़ब कि इंसान ही इन हवाओं से ग़ुम

और गायब है..कूक सुनाने फिर से आना..मुद्दत बाद अब मत आना .......
नारी कौन है...जिस ने अपनी कोख मे पुरुष को संजोया..नारी कौन है,जिस ने पुरुष को चलना-बोलना और

दुनियाँ मे रहना सिखाया..अपने आँचल की छाँव मे दुनियाँ का हर दस्तूर सिखाया..वो खुद भूखी रही,पर

उस को भर-पेट खिलाया...नारी...एक बेटी..एक पत्नी..एक प्रेमिका...एक शिक्षक..एक माँ...और भी ना

जाने कितने रूप लिए वो जीवन को जीती है..आंसुओ को रात-भर तकिये पे भिगो कर,सुबह खुली हंसी

से ज़िंदगी जीती है...पुरुष को स्त्री की इज़्ज़त करना,यही नारी-माँ ही तो सिखाती है..वो ना सीख पाए

तो भी दुनियाँ क्यों माँ को ही दोष देती है..वो नारी को बेइज़्ज़त करे,यह नारी-माँ कभी नहीं सिखाती है...

शायद दम्भ और अभिमान पुरुष मे भरा है इतना कि वो माँ की सिखाई बाते भूल जाता है...दोस्तों..

नारी को सम्मान जरा सा दो गे तो नारी-जाती को सम्मान ही दो गे ..गरूर से बाहर आओ,यह नारी

कुदरत की अनमोल कृति है...

Wednesday 27 May 2020

वल्लाह,यह भी कोई बात है...खवाबों की नगरी से परे खवाबों के एहसास मे है...वो सिर्फ एक बून्द

अश्क ही तो था जो मोती की तरह बेहद खूबसूरत था..मखमली डिबिया मे कैद एक सुहाना खवाब

ही तो था..बरसती रात मे वो चंद साँसों का मेहमान ही तो था..जीने के मकसद से परे वो आफताब का

चाँद भी था...बिख़र गई किरणें चारो और,यह हादसा भी कोई कम ना था...हादसे तो हज़ारो होते है,

मगर यह हादसा किसी करिश्मे से कम तो ना था..
वो शायद गुनाहों की बस्ती थी...सच-झूठ के वादों पे रुकी,कोई मायानगरी थी..सोने की चमक से सजा

कर रखा था उस बस्ती को...मन हमारे का कोना, शुरू से ही इस बस्ती का सच जानता था..उस झूठ

को सच मान उसी बस्ती मे रहा करता था..खुद पे था इतना गरूर और विश्वास खुद पे खुद से भी जयदा

था..वो चमक सच मे सोने की नहीं..फिर भी सोने की हो जाए,हम एहसासों की ईंट एक एक कर तह

जमाते थे..दुआ के महीन धागे और इबादत का सच्चा रंग..नूर कही पे भी ले आता है..पर हम बहुत

नादान थे..भूल गए,यह कलयुग है..यहाँ जो दीखता है वो सच होता नहीं..दुआ भी सच्ची थी और इबादत

भी पाक...शायद सोने का वो रंग अंदर तक नकली था..आज भी खरे सोने का रंग भरा है हमारे दामन

मे,कुदरत का करिश्मा शायद इस चमक को खरे सोने से सच मे रंग जाए...
बादलों की गड़गड़ाहट मे वो बिजली का कौंधना...कौंध के किसी के आशियाने पे पसर जाना..उस

कौंध से उस आशियाने का ख़ाक हो जाना..कसूर क्या था उस आशियाने का,कसूर क्या था उस का

जहां मे आने का...अंदर बहुत कुछ था ऐसा,जो बर्बाद हो गया..बिजली की कौंध कर गई तबाह उन

के वज़ूद को..ग़ुरबत से बुरा और क्या होगा..दर-दर भटकने के सिवा कौन अब इन का होगा...आहों

का असर दूर तक जाए गा..रुखसत यह तो हो जाए गे इस जहान से,पर क्या आहों का असर कम हो

पाए गा....
यू ही चलते चलते...
कुछ प्यारी मुस्कुराहटें दिखी...
कुछ अजनबी बैगाने चेहरे दिखे...
कुछ प्यारे मासूम बंधन दिखे...
किलकारियां मारते अल्हड़ बचपन दिखे...
     फिर चले आगे तो हम को.....
मैले-कुचैले बच्चे दिखे...
भूख-प्यास से बैचैन चेहरे दिखे...
पास उन के ना थी किलकारियां...
सिर्फ पास थी उन के सिसकियां...
          कुछ और आगे चले........
उदास व्याकुल मसीहा दिखे...
पाल-पोस अपने बच्चो को,अब दोराहे पे अकेले खड़े...
आँखों का सूनापन और पलकों पे रुकी आंसुओ की बूंदे.....
ना जीने का मन,दिल मे मौत की हसरत लिए....
काश..कोई तो थाम ले आंचल इन का विश्वास से....
      आगे अब हम से चला जाता नहीं................
दिख रही है दूर से कुछ चिताए जलती हुई....
उदास है कुछ नए चेहरे,जिन का इन से नाता ना था...
देख यह इंसानियत बस हम रो पड़े.....
क्या ज़िंदगी इसी का नाम है,जिसे कहते है नियामत....
क्या कुदरत की मिली सही मायने मे यही पहचान है..............   ''शायरा''         सरगोशियां,इक प्रेम ग्रन्थ...

Sunday 24 May 2020

डरते-डरते जीने के बाद,बिंदास जीने का दिन भी तो आए गा..ना कीजिए खौफ इतना कि गहरी काली

रात के बाद सवेरा जरूर आए गा..सवेरे की इंतजार मे मत भूलिए,गल्त बहुत गल्त इंसान करते आए है..

सब ने सोचा यही था,कुदरत के तमाम काम ले ले गे हाथ मे अपने..चाँद पे दुनियाँ तक बसा ले गे हम..

कुदरत ने जो बनाए असूल,पलट कर खुद के असूल बना डाले गे हम..संस्कारो को भुला कर,खुद के

विचारों से जिए गे हम..याद रखे,कुदरत यह भरम भी तोड़ने वाली है..सब लौटे गे पुराने संस्कारो पे,

बेशक मजबूर हो कर सही..जो किसी से ना सुधरे उन को कुदरत सुधार दे गी अब...

Saturday 23 May 2020

एक नन्ही सी परी बचपन की सौगातों से भरी..वो पहन कर फ्रॉक गुलाबी-गुलाबी,ज़न्नत की कोई

अप्सरा सी लगती थी..खिलौनों की दुनियाँ से परे,वो क़िताबों की दुनियाँ को समझती थी..हर अक्षर

को जानना और उस की गूढ़ अर्थ को समझना..यही नियति थी उस की..परिंदा हो या कोई भूख से

परेशां,अपने हिस्से का खाना वो उस को दे देती थी..देख उसे खुश इतना होती कि भूख अपनी भूल

जाती..कौन से देश से आई हो..यह सवाल तो वो भी ना जानती थी..उस को प्यार था गरीबों से,उस को

प्यार से हर मासूम परिंदे से..परियां बड़ी कहां होती है..वो तो अपने पंखो से जरुरतमंदो की करीब

होती है..भावना  किस की है कितनी पावन ,वो पहले से जान लेती है..

Friday 22 May 2020

शब्दों की,लफ्ज़ो की..अदायगी कुछ ऐसे कीजिए कि दिल-रूह ना छिल जाए कही..शब्दों को पन्नों पे

उतार कर आप ने अपनी समझ का परिचय दे दिया..खुद के चरित्र को शब्दों से बता दिया...यह शब्द

ही है जो इंसा को इंसा से जोड़ते है,यह लफ्ज़ ही तो है जो इंसा को इंसा से जुदा भी कर देते है..मन की

पीड़ा जो हर ले,शब्दों का जादू ऐसा भी होता है..''फूल झरते है आप के शब्दों से'' सुन के कौन ना खुश

होगा..असली नकली की पहचान होते है यह शब्द..शब्दों पे जो लिखने बैठे तो सादिया बीत जाए गी..

गुजारिश यही,शब्द को,लफ्ज़ो को मान देना ना भूलिए...इन की गूंज बहुत बहुत दूर तक जाती है..

वो शब्द जो पूजा की आरती बनते है..वो लफ्ज़ जो नमाज़ पड़ते वक़्त दुआ के लिए उठते है..शब्द,लफ्ज़

वो भी तो है,जो गाली बन अपमान किसी का कर देते है..वो शब्द ही तो है जो माँ हम को सिखाती है..

वो शब्द ही तो है जो बाबा अंगुली पकड़ मंत्रो का ज्ञान भी सिखाते है....यक़ीनन,जादूगर है यह शब्द..
देखिए ना,यह रेल की पटरियां साथ-साथ कितनी दूर तक जाती है..मगर तक़दीर का फैसला भी देखिए

कभी मिल नहीं पाती है..नैना भी तो यही कमाल करते है,ताउम्र साथ-साथ रहते है..गज़ब यह कि इक

दूजे को ताउम्र देख नहीं पाते है..पर नैनो की जोड़ी भी कमाल है,रोना है तो भी संग-संग..हंसना है तो

भी एक संग...बंद होना है तो भी साथ-संग..फिर यह दूरी तो कुदरत का कमाल है..यह पटरियां जुड़

कर भी जुड़ी नहीं,मगर धूप हो या छाँव,बारिश हो या तूफ़ान,संग चलती रही..वजह एक रही,ईमानदारी

का पथ दोनों ने छोड़ा नहीं..इक दूजे के सिवा,किसी और के बारे मे सोचा तक भी नहीं..तभी तो ताउम्र

साथ-साथ है..
 वो दूर से चलती आ रही थी लहर..पूछा,तलाश तुम्हे किस की है...सुनते नाम तलाश का,लहर का दर्द

बाहर आया..किस ने तुम को दर्द दिया,सुन बात मेरी, दर्द तुम्हारा क्यों बाहर आया..लम्बी ख़ामोशी के

बाद,व्यथा उस की जो सुनी..मन उदास हो आया. ''यहाँ के लोग/इंसान बहुत ही मैले है..जितनी साफ़

हू मैं उस से जयदा इन का ज़मीर बेहद मैला है..''  हम ने कहा,सुन ना जरा..इंसान अब कैद है खुद के

बनाए पिंजरे मे,बाहर आना लम्बे अरसे तक नामुमकिन है..तू बहती रह खुद की मर्ज़ी से,जब तक वो

आज़ाद होगा तब तल्क़ तुम खिल-खिल जाओ गी..हम दुआ करे गे ऊपरवाले से,वो आज़ाद होने से

पहले खुद के गुनाहो को धो ले..कदर होगी तभी तेरी,बस इंतज़ार कुछ और कर ले..

हाथ की ऊँगली पे गिना तो इस ज़िंदगी मे खुशियाँ बस गिनती की मिली..पर जितनी भी मिली,उन को

ईमानदारी और दिल-रूह से जिया..उम्र भले कम रही उन खुशियों की ,पर ज़िंदगी को और परवरदिगार

को बेहद शुक्रिया कहा..ख़ुशनसीब थे जितना भी मिला,उतना कितनो को मिलता है..यादगार के तौर पे

इन सभी को रूह के पन्नो पे सहेज दिया.. जब तक है साँसे,एक एक कर इन पन्नो को देखे गे..कुछ ना

हुआ तो तकदीर को फिर शुक्रिया कह दे गे..खुश है बहुत,जितना हम को मिला वो कितनो को मिलता है 
आज कल हर दिन यह सोच कर जीते है...आज कल यह सोच कर खुश रहते है..आज कल हर काम

शिद्दत से करते है..कल क्या हमारा होगा ? या फिर यह जिस्म भी मुर्दा लाश होगा..शायद कोई रो के

विदा भी ना कर पाए गा..एक महकते जिस्म को कोई अनजान जला कर राख़ कर दे गा..खुद को

सजाते रहे,कभी संवारते रहे चेहरे को..पलों मे तब्दील हो जाए गा माटी मे,माटी भी ऐसी जिस को हाथ

लगाने से सब डर जाए गे..जी हां,यही हकीकत है..गुफ्तगू कब तक अपनों और दोस्तों से कर पाए गे..

अब इस सच को लिखना कोई जुर्म नहीं..कल मेरी माटी तो कुछ ना लिख पाए गी..इसलिए रोज़ शिद्दत

से जीते है..''सरगोशियां'' ज़िंदा रहे,इस की इबादत को हर सांस के साथ करते है..
हज़ारो जिस्म बदल रहे है मुर्दा लाशों मे..जिसे देखा था कल,उस को अब कभी नहीं देख पाए गे अब....

यह कैसा क़हर है,यह कैसा ज़हर है..जो निगल रहा है साँसों को..जितना डरता है इंसान मौत के खौफ

से,यह जब आती है तो साथ लिए बिना जाती नहीं..गुफ्तगू जिस से कर रहे थे कुछ रोज़ पहले,वो क्यों

मुझे अलविदा कह गया बिना बोले..ज़िंदगी की बस इतनी सी ही कहानी है,जब तक है इस को जीना है..

फिर क्या पता,मोहलत और कितनी मिलनी है..लिखते-लिखते मुस्कुरा दिए,प्यार तुझे करते रहे ज़िंदगी,

पर मौत कब कर ले मुझ से दोस्ती..यह पता तो तुझ को भी नहीं...

Wednesday 20 May 2020

जनून..जनून..जनून..यह जनून भी अजब शै है..किसी को आसमां मे उड़ने का जनून,किसी को किसी

को पा लेने का जनून...किसी को जनून रहा दौलत ढेर सारी हासिल करने का...कोई शोहरत पाने के

जनून मे दीवाना सा हो गया...किसी ने कभी यह सोचा भी ना होगा कि जनून से बड़ा जनून भी हो सकता

है...वल्लाह...आज कुदरत भी देखिए ना.....अपने जनून मे है..इस कदर जनून मे है कि इंसान के होश

उड़ा देने को बेहद जनून मे है..सोच ले इंसान कि अब तू किस जनून मे है...

Tuesday 19 May 2020

ज़िंदगी का यह फलसफा भी कितना खूबसूरत है..सामने मौत का डेरा है और तब भी बिंदास जीना है..

खबर खुद को ही है कि अब साँसों का बसेरा कितना है..चुन-चुन के उठा रहे है खुशियां,कही अब किसी

की नज़र ना इन को लगे..सबक मिला है अब, वो भी इसी ज़िंदगी से,कैसे कह दे कि अब मौत प्यारी

नहीं..चैन से सुला के फिर कोई सवाल तो नहीं पूछे गी..यह ज़िंदगी सवाल बहुत किया करती है...ना

कहो कुछ तो उलझा दिया करती है..चल आ..ज़िंदगी इस दफा तुझे ही उलझा देते है..जीते है तेरे

हिसाब से और मौत को चुपके से दावत दे देते है..

''सरगोशियां''  जब जब शब्द पन्नो पे उड़ेलती है,दुनियाँ को प्रेम के हर रंग से रूबरू करवाती है..कभी प्रेम की अतिसीमा,कभी प्रेम की अवहेलना,कभी प्रेम का दर्द-विरह..आंसुओ का सैलाब,ख़ुशी से महकती साँसे,कभी प्रेम को पा लेने का सुख तो कभी उसी को खो देने का गम..रंगो के साथ चलती तो कभी रंगो को औरों के जीवन मे भरती मेरी ''सरगोशियां''.....जीवन देती तो कभी साँसों के खोने का दर्द समझाती....दोस्तों...''सरगोशियां'' किसी की भी ज़िंदगी के पन्नो से जुड़ी कलम नहीं है..इस का किसी भी इंसान,व्यक्ति,मनुष्य से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं..यह कलम जब जब लिखती है,उस को खुद भी पता नहीं होता कि वो आज इस वक़्त क्या लिख डाले गी...''सरगोशियां'' एक ऐसे सफर की तरफ चल रही है,जिस का मकसद आसमान को छूना है बस......कोई भी इस के लफ्ज़ो को अपनी ज़िंदगी से ना जोड़े..मै एक शायरा हू,एक कलाकार..जो कलम के जादू मे इस कदर डूब जाता है कि उस को सिर्फ और सिर्फ अपनी ''सरगोशियां'' का सफर याद रहता है.. शुभ रात्रि दोस्तों.....''शायरा''    
राधा बह गई इतनी शिद्दत से, गहराई से कृष्ण के प्रेम मे..वो रहा आराध्य उस का और रहा सखा भी उस

का..कृष्ण के  दिल की हर खामोश आवाज़,राधा के दिल तक यू आती कि कृष्ण को यह कहानी समझ

ही ना आती..राधा जो जुड़ी थी कृष्ण के अंतर्मन से इतना कि सर से पांव तक वज़ूद जानती थी उस का..

यह तभी संभव हो पाता है जब प्रेम की चरम-सीमा पार से भी पार हो जाती है..''प्रेम की देवी'' नाम दिया

जब कृष्ण ने राधा को,क्यों आंखे भीग गई उस की..प्रेम भी और सम्मान भी,वो भी उस कृष्णा से..जिस

के लिए वो साँसे लेती थी..प्रेम-समर्पण का यह अनोखा बंधन,जो युगो-युगो तक कायम है..आज भी

प्रेम के रूप  मे,राधा का नाम कृष्ण से आगे है... 
हम ने दुआओं का खज़ाना दोनों हाथों से लुटा दिया..उन के लिए जिन्हो ने हम को सम्मान दिया..उन के

लिए भी जिन्हो ने हम को दुत्कार दिया..माँ हमेशा कहती थी,तुम खुद से सही हो तो सिर्फ दुआ ही देना..

सरल सहज हो तो किसी को दुःख ना देना..क्यों कि भगवान् की लाठी मे कभी आवाज़ नहीं होती..वो

जानता है गुनहगार को सज़ा देना..उस का तरीका देने-लेने का बहुत अनोखा है..तेरे आंसू भी देखता

है वो,कितने सच्चे है..इस का अंदाज़ा भी जानता है वो..बस भूलना नहीं...भगवान् की लाठी मे आवाज़

कभी नहीं होती...बस खुद को संस्कारो मे बांधे रखना...
कमियाँ तो खुदी मे ढूंढी..दुनियाँ तो अपनी रफ़्तार से चलती है..वो जज्बातों की परवाह नहीं करती,बस

खुद के मतलब के लिए रिश्ते जोड़ लेती है..सहज सरल रह कर हम रिश्ते निभाते रहे..ठोकर लगी तब

जब पीठ पीछे लोग हम पे हँसते रहे..यही सच है आज का..रिश्ते और दोस्ती को निभाने के लिए,इस

दुनियाँ मे लोग चालाकियाँ कर जाते है..तेज़ धार से अक्सर दिल-रूह को काट देते है..मोल संस्कारो का

कही दिखता नहीं..हां,कुछ अच्छे भी मिले जिन को हम भूल सकते नहीं...

Monday 18 May 2020

हार-जीत किस के लिए..सुबह की बेला मे कदम उठे सिर्फ, सभी की सलामती के लिए..साँसे सब की

चलती रहे,खुशियों के द्वार सब के लिए खुलते रहे..उदास हुए तो याद आया,माँ कहा करती थी..ज़िंदगी

टूट जाने का नाम नहीं..बाबा जो हिम्मत का पाठ सिखाते रहे..खुद की ख़ुशी से जयदा दूसरों का मान

रखते रहे..यह वक़्त भी शायद कुछ सीख देने ही आया है..दूरियां भी शायद फिर और पास आने के लिए

ही आई होगी..विश्वास के धागे कहां टूट सकते है..इसलिए तो परवरदिगार दुःख के बाद ही सुख दिया

करता है...वक़्त यह भी निकल जाए गा.........................................
यह रात बहुत मन्नत वाली है...ना इस मे कोई सवाली है ना कोई जवाबी है..वो खुदा भी देख रहा है बहुत

बारीकी से,किस ने मुझे सज़दा किया इतनी ख़ामोशी से..आंख का सिर्फ एक आंसू,रख दिया उस की

थाली मे और ख़ामोशी से सोने जा रहे है अपने घर की बंद दीवारी मे..क्या मांगे कि उस को इबादत मे

अपना एक आंसू दे दिया..अब जानना उस को है कि हम ने उस से चुपके से क्या कह दिया..रज़ा उस

की क्या होगी,नहीं जानते..हम ने तो उस को खुदा कह कर पुकारा और सर झुका दिया...
वफ़ा और ईमानदारी की मिसाल ढूढ़ते रहे इंसानो मे..प्यार और पाक मुहब्बत का सैलाब,जो हो इतना

गहरा कि डूबने के बाद निकलना नामुमकिन हो जाए..टूट के चाहना और किसी एक के ही रहना..यह

जज्बात किताबो मे ही पढ़ते रहे..जी घबराया तो फूलों से मिलने बाग़ मे चले आए..उन की मुहब्बत की

शिद्दत देखी तो हैरान हो गए..वो जिस पे खिले,संग उसी के आखिरी लम्हे तक रहे..गज़ब तो गज़ब यह,

कि दम निकलने का समां आया तो उसी संग ही मुरझा गए..देख ऐसा प्यार,नैना हमारे भीग-भीग गए..

इंसानो की बसती क्यों ऐसी नहीं हो सकती और एक बार फिर फूलों की मुहब्बत पे कुर्बान हो गए..
वो राख़ मे दबी कोई चिंगारी थी या बर्फ की शीतलता लिए कोई संगेमरमर की मूरत थी..या फिर कोई

बहुत गहरा तूफ़ान लिए,आँखों मे किसी अधूरे सपने का अरमान लिए..अब तक ना जाने क्यों ज़िंदा थी..

भटक रही थी ना जाने कितनी सदियों से,क्या अमानत किसी की तक़दीर की थी..खामोश रहते थे लब

उस के,मगर वो बातें खुद से हज़ारो करती थी..इतनी बड़ी दुनियां मे,सब के रहते वो क्यों बहुत अकेली

थी..परिंदो को उड़ा कर,उन्हें आज़ाद कर देना..यह उस की खासियत थी..खुद को जानने की कोशिश

मे,वो बहुत बार बेतहाशा रोई थी..किस से दर्द अपना कहती,हर किसी के हंसने से डरती थी..क्यों जन्म

दिया तुम ने मुझ को,अक्सर खुदा से पूछा करती थी..ज़िंदगी की खुशियों को तरसती वो एक भटकी

कोई आत्मा थी...
पराकाष्ठा प्रेम की इस से ऊपर क्या होगी  कि वो अपने प्रियतम मे ही,अपना अराध्या ढूंढ़ती रही..वो

बेशक राधा जैसी ना थी,पर राधा के जैसे प्रेम का बंधन शिद्दत से निभाती रही..बिन बताए बिन जताए.

वो धर्म अपना चुपके से निभाती रही..वो शिव भी रहा उस का,वो गौरी बन उस के विष को अमृत मानती

रही...रूप राम का भी देखा इसी प्रियतम मे उस ने, और सीता सा सोलाना रूप लिए धरा मे समा जाने

को तैयार रही..यह कौन सा अनजाना अनदेखा बंधन रहा,जिस का कोई नाम ना था..अनंतकाल का था

या सदियों का..यह भी तो ज्ञात ना था..ख़ामोशी के इस बंधन मे शिकायत का इतना सा दौर था..वो

डूबती रही इबादत मे उस की और वो उस को कभी समझ ही ना सका..

Sunday 17 May 2020

''सरगोशियां.इक प्रेम ग्रन्थ'' जो हम ने रचा..जिस को हम ने लिखा..हम ने ही राधा कृष्णा के प्रेम को

इस ग्रन्थ की रूह मे ढाला..सीता और राम को मान आदर्श इस ग्रन्थ मे उन का त्याग लिखा..वो गौरी

थी या पार्वती,पर थी वो शिव की अर्धाग्नि..जीना भी इस ग्रन्थ के साथ,मरना भी इसी ग्रन्थ के साथ...सांस

आखिरी तक लिखे गे हम शुद्ध प्रेम की शुद्ध परिभाषा...सुन्दर प्रेम की अति शुद्ध परिभाषा बहुतों को 

समझ तब ही आती है...जब प्रेम की बगिया मुरझा जाती है..फिर भी लिखते रहे गे प्रेम को मान कर पूजा

,इस ग्रन्थ को बनाना है प्रेम की चरम-सीमा की सुन्दर रेखा..
''प्रेम ही था,अरे जाने दो'' यह शब्द पढ़े कही और सन्न हो गए..क्या प्रेम कोई वस्तु है,क्या प्रेम कोई

पैसो से खरीदी कोई चीज़ है...जिस ने भी लिखा,क्या सोच कर लिखा...प्रेम के मायने उस के लिए शायद

किसी वस्तु जैसे ही थे..प्रेम का स्वरुप उस के लिए यक़ीनन कोई ऐसी चीज़ रही होगी,जिस का  मूल्य रद्दी

के कागज़ जैसा होगा...फिर होगी नई किताब,और पन्ने भी होंगे नए-नए..किताब तो आखिर किताब है,

वक़्त ढले रद्दी बन जाये गी..प्रेम को क्यों जाने दिया..प्रेम की आह शायद जानी ना होगी..आंसुओ का

मोल कहां पता होगा...दिल था या कोई चट्टान पुरानी..याद रखना था,तेरी इमारत भी होगी इक दिन

बूढ़ी और पुरानी....
युग-युग की गाथाएं बहुत पढ़ी..प्रेम के हर स्वरुप को अंदर तक छाना..वो राम और सीता थे..वो शिव से

जुड़ी उन की गौरी थी..और कृष्ण जिन की जान तो सिर्फ और सिर्फ राधा ही थी..सीता प्रेम की परीक्षा

के लिए धरा मे समा गई..गौरी जिस को शिव ने अथाह प्रेम दिया,वो प्रेम जो उन की कथा बनी..प्रेम वो

बहुत ही सच्चा था..प्रेम जो शुद्ध से भी जयदा परिशुद्ध था...दोनों सिर्फ बने और जिए,सिर्फ इक दूजे के

लिए...आज कृष्ण का रूप अलग सा है..वो सिर्फ राधा का कहां,वो तो कितनों मे ज़िंदा है..प्रेम का

असली स्वरुप कहां समझ आया ...वो तो कृष्णा की दुनिया-लीला थी..प्रेम का पथ तो संग राधा ही था..

आज प्रेमियों का दौर उस कृष्णा को जीता है,जहां मान कृष्णा खुद को  कितनी गोपियों संग प्रेम की

लीला जीता है..यह कलयुग का प्रेम कहलाता है..ग्रंथो की कदर करो और राधा-कृष्णा नाम को ना

बदनाम करो..
बचपन..जिस की मिसाल कहां होगी..बचपन,जिस की पहचान इस जहां मे और कहां होगी..नन्हा मन

जिस मे मासूमियत के इलावा और कुछ भी नहीं..वो खिलखिलाती हंसी जो खिलती है बहते झरने की

तरह...ना कंकर ना पत्थर ना कोई चट्टान का दिल है इन मे..दौलत हो या सिक्का सोने का,यह तो बस

खेल के उन से उन्हें रख देते है..क्या जाने कि यह ज़माना इन सिक्को के लिए पागल है..यह बचपन जो

कुदरत का एक करिश्मा है...हम तलाशते रहे इंसानो मे फरिश्ता और यह बचपन खुद ही हम को इस

ज़न्नत तक ले आया...
चलना शुरू किया तो लगा मंज़िल बहुत सुहानी है..यह रास्ते है इतने खूबसूरत कि इन पे चलना बहुत

सुहाना है..कंकर-पत्थर तो बहुत थे और धूप की तेज़ी हद से जयदा है..डर-डर के क्या चलना जब साथ

हिम्मत का पास है...मगर वो रास्ता आगे-आगे कठिन बेहद कठिन होता गया..इतना कठिन कि चलना

ही मुश्किल हो गया..पाँव छिले इतना छिले कि लहू को संभालना तौबा हो गया..ढूंढे किसे कि यहाँ तो

परिंदो का बसेरा तक नहीं..इरादा तो यह तय किया,क्यों ना परिंदो का बसेरा अपनी मंज़िल मे तय कर

लिया जाए..यह बहुत मासूम है क्यों ना इन को ही मंज़िल चुना जाए...
जमीर और रूह से गिरते आंसुओ का फ़साना बहुत अलग होता है..यह गिरते है तभी जब कहर हद

से भी जयदा होता है..गलती से भी इन को मामूली ना समझ लेना,इन की आवाज़ सीधे उस मालिक

तक पहुँचती है..वजह बहुत खास हो तभी यह गिरते है..रूह ज़मीर कभी इतनी आसानी से बिलख-

बिलख कर रोया नहीं करते..एक मजबूर और मज़दूर के बिलखते ज़मीर के आंसू बहुत दर्द देते है..

रूहे जो रोती है वो आवाज़ नहीं करती,मगर उन की पहुंच सीधा मालिक के चरणों तक लगती है..

लोग अक्सर भूल जाते है या अनदेखा कर देते है यह आंसू और रूह की बेआवाज़ सिसकियां...यह

कसूरवार नहीं मगर फिर भी रूह ज़मीर की आवाज़ कोई सुन नहीं पाता.....

Saturday 16 May 2020

इंसान की फितरत तो देखिए,तरक्की के नाम पे भगवान् के कामो को अपने हाथों मे लेने का गुनाह

करता रहता है..वो ही तो है जो कुछ भी बदल सकता है..वो चाहे तो किस्मत की लकीरे भी बदल देता

है..उस की रज़ा हो तो झोली मे हज़ारो नियामते भर देता है..जो ना भी सोचा हो वो भी कर देता है..पर

उस को श्रद्धा और जज़्बात का तोहफा,गंगाजल से भी पवित्र देना होगा..इंसान ने जब-जब लिए है उस के

काम अपने हाथों मे,तब-तब इस धरती पे प्रलय आई है..यह कहर उसी गुनाह का सबूत है..ईश्वर ही

सत्य है,ईश्वर ही सर्व्वयापी है..मान लो तो यही सभी के लिए बेहतर है..
कैद मे रहना होता है कैसा,यह कभी परिंदो से ना जाना..खुद कैद हुए तो कैद होने का अर्थ जाना..किसी

को दर्द देना होता है कैसा,दर्द खुद को होगा तब जानो गे कि दर्द और इस की पीड़ा होती है कैसी..

यही तो इंसान है..जब-जब खुद को होती है तकलीफ,तभी तकलीफ की अहमियत समझ पाता है..यह

वक़्त है दोस्तों,किसी को कब क्या देने वाला है,कौन जाने..ना गुमान कर खुद की ताकत और सूरत पे..

एक लम्हा और परवरदिगार अपना कमाल दिखा देता है..इस कहर से भी अभी इंसान सब कुछ समझा

नहीं..सबक और मिलना बाकी है अभी....
हम कौन है..कहां से आए है..किस मकसद से इस ज़िंदगी की साँसे ले पाए है...जानो गे तो खुद को

माफ़ कभी ना कर पाओ गे...जिस के एक आंसू के गिरने से पहले,हज़ारो मददगार दौड़े चले आते है..

जिस की हर बात कहने से पहले,फरिश्ते भी  कोई सवाल ना उठाया करते है..दौलत-ऐशो-आराम को

दूर रख के खुद से,दूसरों के दर्द सुलझाया करते है...सवाल हज़ारो है तो जवाब भी हज़ारो होंगे..हर बात

हर मुश्किलात समझना जरुरी तो नहीं..ज़िंदगी जीने की कोई उम्मीद नहीं होती,यह उम्मीद हम खुद

ही बनाया करते है..बुझते दियो को रोशन करने के लिए,अक्सर अपने आंसू और दुआए दियो को दे

दिया करते है...ज़मीर अपने की सुनते है,किसी और के ज़मीर को सकून देने के लिए..
आ तुझे फिर से तेरा बचपन लौटा दे..आ फिर से तेरे सपनो को खूबसूरत रंगो से भर दे..क्या हुआ जो

सब कुछ टूट गया..क्या हुआ जो पीछे कुछ छूट गया...हम ने मुरादों को पूरी होते देखा है..परवरदिगार

को खुद अपने साथ चलते हुए देखा है...दिल के आईने पे बस धूल ना जमने देना...एक भी कण भूले से

इस आईने पे ना जमने देना..बचपन की वो हंसी तेरे चेहरे पे गर ले आए,तेरे जीवन से हर बुरी तस्वीर जो

दूर कर पाए तो मान लेना कि परवरदिगार हमारा साथी है..शर्त सिर्फ इतनी होगी कि आईना दिल का

हमेशा सदाबहार रखना होगा...
बहुत तेज़ धूप है और रास्ता कठिन है बहुत..देखते है, जब जब पाँव के छालों पे नज़र पड़ती है तो दर्द

दिल का कम होने लगता है...शायद यह दर्द दिखता है और वो दर्द खुद से भी छिपता है..हज़ारो दरख़्त

खड़े है बीच राह मे और तेज़ धूप मे...हम संभल गए या यू कहे,इन से बहुत कुछ सीख़ गए..जो रोज़ खड़े

रहते है तेज़ गर्म हवाओ मे,जो रोज़ तपते है तेज़ धूप की किरणों मे..अब ना डर है पाँव के इन छालों का

ना डर है तेज़ धूप की किरणों का...जा रहे है उस मंज़िल की तरफ,जिस को हमारी जरुरत हम से कही

जयदा है...अब मुस्कान चेहरे पे है और याद सिर्फ मंज़िल की है..
दोस्तों....किताबें हमारी सब से सच्ची साथी होती है..यह हमेशा हमारी साथ रहती है...आप खुश है तब भी,आप दुखी है तब भी..कितनी बातें हम इन से सीखते है..फर्क इतना है कि ''क्या हमारी मर्ज़ी होती है इन से सीखने की या सिर्फ समय व्यतीत करने के लिए पढ़ लेते है'' जीवन के कितने सच,कितने अनुभव हम इन्हीं किताबो से सीख़ पाते है..अभी पढ़ा कि जब हम एक मज़ाक,एक ही जोक पे बार-बार नहीं हंस पाते तो हम एक ही दुःख पे बार-बार...बार-बार क्यों दुखी होते है...क्यों रोते रहते है...इस का जवाब,मेरी नज़र मे यही है कि हम खुद मे इतने शक्तिशाली नहीं होते कि उस दुःख-दर्द से खुद ही निकल सके..याद रखे कोई भी हम को दुःख से नहीं निकाल सकता..सच तो यह भी है कि कोई इतनी मेहनत भी नहीं करता किसी को दर्द से उबारने मे..लोग आप के दुःख पे हँसते जरूर है..पर किताबो का ज्ञान सिखाता है कि जब कोई आप का बेहद करीबी कष्ट मे हो तो उस की मदद कीजिए..हर मदद पैसो की नहीं होती..भावनात्मक रूप से किसी को उस की तकलीफ से निकालना भी एक खास मदद है...किसी को सही सच्चा रास्ता सिखाना भी तो मदद है..याद रखे,जिस की भी मदद करे उस की बात को गोपनीय रखे..ढढोऱा मत पीटे कि हम ने उस की/इस की मदद की है...किसी को उस की ही नज़रो मे उठाना भी एक मदद है..बस जरुरत है,आप को खुद मजबूत बनने की..इसलिए खाली वक़्त किताबें पढ़े और इन से सीखे..एक नेक इंसान बने ...

Friday 15 May 2020

समंदर की लहरों मे पांव जमाए बैठे है..आती-जाती लहरों से बातें करते है...पूछ रहे है तेरा यह समंदर

पागल क्यों है..इतना खारा है,फिर भी गुमान मे क्यों है...खुद मे समाए है बेशक हज़ारो मोती-मनके..

पर गरूर इतना कि भूल चूका कि तू खारा है कितना...गंगा जैसा जल तेरे पास नहीं,यमुना जैसा पावन

भी नहीं..अपने दायरे से निकल कर देख,कोई तेरे साथ ताउम्र रहने को तैयार नहीं..लहरों का संग तेरे

जीना मज़बूरी है..एक हम है जो पांव जमाए बैठे है..हम को इन लहरों जैसा ना समझना,जीना संग तेरे

इन की मज़बूरी है..याद रख,तेरे वज़ूद से टकराना सिर्फ हमी को आता है..बने है उस माटी के,जो खारे

को मीठा कर जाए गे..बेशक इतना खारा जल पी कर दफ़न क्यों ना हो जाए गे...
जीवन नीरस ना हो जाए..कोई इस कहर को बार-बार याद कर ख़ौफ़ज़दा ना हो जाए..ज़िंदगी फिर से

बेमानी ना हो जाए,कही कोई हंसना ही ना भूल जाए..इस ख्याल से एक बार फिर,मुहब्बत को सरगोशियां

के पन्नों पे बिखेर दिया है...इस की खुशबू मे हज़ारो की ज़िंदगियों को,फिर से मुहब्बत के महीन धागो मे

पिरो दिया है..खो जाइए,कल किस ने देखा है..इस के एहसास से उन लम्हो मे लौट जाइए जो रूहे-पाक

भूल चुकी होगी..खोजिए उन पलों को जो खुशनुमा थे...हम तो तागीद करते है,फिर से जी लीजिए तमाम

लम्हो को,जो आप के थे,आप के है...हमेशा रहे गे..
घूँघट की आड़ मे रहना,घूंघट से ही निहारना..तो क्या हम पर्दानशीं हो गए..घूंघट से ढके,इसी के तहत

गुफ्तगू के चर्चे भी हुए तो क्या हम महजबीं हो गए..पहनी पायल-पाजेब पैरों मे,पर उन को भी छुपा

लिया घाघरे की ओट मे तो जाना, क्या हम पुराने ज़माने के हो गए..गेसुओं को संवारा मगर ओढ़नी के

भार से वो बहक-बहक गए तो क्या सनम,हम चितचोर बन गए..यह कजरा डाला जो इन अँखियो मे,

और दिन मे बादल घनेरे छा गए..अब कहे ज़माना हम,जादूगर हो गए..अब बोलिए जानम,हम क्यों

इतने कसूरवार हो गए..जो किया तेरे लिए किया,फिर नज़र मे तेरी भी क्यों हम गुनहगार हो गए..
बात को घुमा देना...कभी बात को छुपा देना..साफ़-साफ़ कुछ भी ना कहना..फितरत बदलती कहां

है..दुनियां की शायद रीत ही यही है..तभी तो इस दुनियां से शिकायत भी हम को बहुत है...गांठे ना

खोलना,खुद ही खुद से उलझना..बेबाकी से बोलना गर तबियत मे शामिल होता,ईमानदारी को हर

पल साथ रखा होता तो शायद हम को दुनियां का रवैया पसंद भी आ गया होता...मन मे कुछ,लबों पे

कुछ..ज़मीर मे कुछ..भगवान् ने तो इंसा को बनाया था पाक-साफ़,मैला होना तो खुद इंसा की मंशा

रही इसलिए तो यह दुनियां पसंद नहीं आई...
राधा या धारा..अर्थ दोनों का एक ही है..राधा जिस का प्रेम बहा, नदिया की धारा की तरह..प्रेम जो सच

मे निश्छल था मासूम था,किसी नन्ही खिलती पंखुड़ी की तरह..राधा तो वो धारा है जो बह गई उस पवित्र

जल की तरह जो पाक भी उतना रहा,जितना राधा का प्रेम रहा..परीक्षा फिर हुई प्रेम और अभिमान की,

तपती हुई दिल की धरती जो प्रेम के महीन धागों से ख़ामोशी मे तब्दील हुई...आंसू जो मोती बन के बहे..

कदम जो इबादत मे चूर दूर तक चले...साबित फिर हुआ,प्रेम राधा का अभिमान से परे इक देवालय

था..जहां खुद दुनियां झुकी यह वो पवित्र देव-स्थल था...कुछ परिभाषा प्रेम की बदली नहीं जाती,क्यों

कि जैसे राधा की धारा बदली नहीं जाती...
शब्द,अक्षर या हो लफ्ज़...सब का वज़ूद खास ही तो है..हम जो कहे,हम जो लिखे..उस का असर दूजों

पे है...वो शब्द,जिस ने दिल-रूह को रुला दिया..वो लफ्ज़,जिस ने रिश्तों को तार-तार कर दिया..वो

अक्षर जो तूने लिखे उस ने अंदर तक मन किसी का आहत किया..यह शब्द ही तो रहे कि हम कितनो

के दिलों मे उतर गए..यह लफ्ज़ ही रहे जो लिखते-लिखते सभी की रूह से जुड़े..अक्षर,जो भा गए किसी

नदिया की धारा की तरह..हम ने उठाया इन को,किसी बादशाह की सल्तनत की तरह..राज़ दिलों पे

करते रहे गे,खुद की इबादत की तरह..बस तागीद सब से यही,शब्दों की ताकत अक्सर दिलों को जोड़

देती भी है और कही तोड़ भी देती है..सोच कर कलम उठाना,लफ्ज़ जो निकल जाते है कलम से,लफ्ज़

जो निकल जाते है जुबां से,वो वापिस लौटा नहीं करते..

Tuesday 12 May 2020

फिर देखा आज मासूम परिंदो को,आसमां की साफ़ खुली हवा मे...खुश हुए यह देख कर,बेखौफ जीना

कितना अच्छा होता है..यू लगा सबक दे रहे है सभी इंसानो को,क्यों बिगाड़ दिया हवा को खुद के

कारनामों से..साफ़ माहौल रखा होता तो यू कैद ना होते,गंदगी ना फैलाते तो हवा भी मैली ना होती..

हम परिंदो को मार कर ना खाते तो ईश्वर के कहर से बच जाते..झुक जा अब भी परवरदिगार के कदमो

मे कि ज़िंदगी के मेले बार-बार लगा भी नहीं करते...

Monday 11 May 2020

मुस्कुरा रहे है लब और आंखे है आंसू से भरी..यह इबादत की सुबह है या अपनी कोई कमी..समझे

क्या कि मामूली इंसान है,हज़ारो खामियों से भरे..कुछ अच्छा हुआ तो खुश हो गए,कुछ बुरा हुआ तो

जी भर रो लिए...पर इबादत को भूल नहीं पाए,संस्कारो की महिमा ने इस इबादत को भुलाने ही नहीं

दिया...दिन की शुरुआत अच्छी है बहुत,साँझ क्या लाए गी पता नहीं..जो पल है उसी मे जीना है..

शायद इसलिए लब है जो मुस्कुरा रहे है कि शुरआत  दिन की बेहद खूबसूरत है...
सुन रहे है,आगे राहें बहुत कठिन है..साँसों के लिए वक़्त की मोहलत महंगी है..कब तक जीना है,तय

नहीं हो सकता..लब हमारे मुस्कुरा दिए यह सोच कर..इंसा के हाथों मे कब क्या रहा है जो अब तय

कर पाए गा..जब अपनी मर्ज़ी से अब तक कुछ नहीं कर सके तो अब साँसों को कैसे तय कर पाए गे..

उस की मर्ज़ी से सब होता आया है,वो चाहे जो देता है वो चाहे तो छीन भी लेता है..तो तय हम क्या कर

सकते है..जो दिन है पास,बस उस की दुआ का ही करिश्मा है..कल शायद सांस हो या ना हो,यह भी

उस ने तय कर रखा है...

Sunday 10 May 2020

सकून से सब सो जाइए,रात फिर सपनो को संग लाई है...इस कहर को भूल कर,ईश्वर को नमन करना

है...हम सब ने शायद कुछ ऐसे गुनाह किए..हम ने उस प्रभु को शायद बहुत दुःख दे दिए..जो उस ने

हम को दहशत को माहौल दिया...एक मूक-बधिर की भाषा जब उस को समझ आ जाती है तो हम जो

बोले बहुत प्यार से उस से,माफ़ी उसी से मिलने वाली है...सच्चा मन और सच्ची पूजा का मोल व्यर्थ नहीं

जाता है..फिर आंसू की भाषा वो ना समझे,ऐसे कैसे हो सकता है..सकून की नींद हमेशा आए,ईश्वर को

नमन करना बहुत जरुरी है...
एक ही स्वरुप,एक ही लय,एक ही सुर से बंधी ज़िंदगी..इतना कुछ जब एक साथ है तो फिर समझने के

लिए बचा ही क्या...दर्द देने की मंशा नहीं,दर्द लेने का इरादा भी नहीं..फिर समझने मे हम को भूल क्यों

हुई...जो ना समझा उस को सोच अपनी बुलंद करनी होगी...हम को समझने से पहले,खुद की तासीर

समझनी होगी..रास्ते मुश्किलात भरे,कंकर-पत्थर हज़ारो भरे..मुस्कुरा कर रास्तो के कंकर दूर किए..

मन की थाह दूजो की जानी,खुद की कहानी खुद से छुपा डाली...इतना कुछ जब एक साथ ले के चले,

तो फिर हम को समझने मे क्यों भूल हुई...

Saturday 9 May 2020

दर्द बेइंतिहा देने लगा है अब यह मौत का कहर..मुर्दा जिस्मों का यह डरावना मंज़र,सहने की हद से

है परे...क्यों तबाही रूकती नहीं..क्यों तूफ़ान यह थमता नहीं..अब तो सब देख के रूह भी काँप रही..

तुम ही कहते हो,एक माँ की पुकार तेरे दर तक बहुत जल्द पहुँचती है..तो अब तो सुन ले इस माँ की

रूह की पुकार...बस कर,रोक दे इस कहर को..बचा ले अपनी दुनियाँ को,कर कोई करिश्मा..तेरे लिए

नामुमकिन कुछ भी तो नहीं..कुछ भी तो नहीं...
'' माँ पे एक खूबसूरत सी कविता ''

सब कुछ मुझ से सीख के जाना..अपने घर की लाज निभाना..
मेरी नन्ही लाडो,माँ-बाबा के दिए संस्कार निभा देना..
खामोश रहना,खुद के मुख पर ताला रखना..
यह कह कर विदा किया बाबा-माँ ने मुझ को......
फिर इक माँ का मिलना..उस के दहलीज़ की रौनक बनना...
इस घर की हर रीत निभाना,जुबां हमेशा अपनी काबू मे रखना...
अल्हड़ उम्र की इक छोटी सी बाला,इस माँ की सीख समझने को आतुर...
नया घर नए दस्तूर,गुस्से की अनोखी भाषा...
माँ की डांट सुन कर आँखों का नीर झट से बह जाता...
माँ प्यार से फिर समझती,कैसे सीखो गी नए घर की नई रीत...
मासूम सी बाला फिर हंस लेती,पा कर माँ का प्यार अनमोल...
बाबा-माँ की हर बात को सीने मे रखती,किसी के आगे मुँह ना खोलती...
धीमे-धीमे माँ को भाई,इतना भाई..मन की हर बात माँ ने उस को बताई...
सब कुछ सीखा,नए घर की हर रीत और प्रीत निभाई...
माँ ने जीवन का हर पाठ सिखाया,बाला से इक परिपक्क स्त्री बनाया..
माँ के पास समय जो कम था,मौत का दरवाजा बस खुलने को था..
पर डांट अभी भी ज़िंदा थी,कुछ कमी शायद अभी भी मुझ मे थी..
उम्र छोटी पर अनुभव सारे सिखा दिए माँ ने मुझ को...
उन आँखों मे बहुत कुछ था ऐसा,जो मुझ को अंदर तक हिला गया..
माँ की ममता का आंचल बस फिर छूट गया...
अश्रु-धारा काबू मे ना थी,यह मेरी कौन सी माँ थी..
जन्म नहीं दिया,पर मेरी सर्वशास्त्र ज्ञाता थी..
संस्कारो से,अनुभवों से भर दी झोली सारी मेरी..
माँ तेरा इतनी जल्दी जाना,मुझे रुला रुला गया..
न अब है जन्म-दाता मेरी,ना है कर्म दाता मेरी...
दोनों के संस्कारो से भरी हुई है झोली मेरी...
प्यार मिला इतना,तभी तो मिलने आती हो...
सिखा दिया है इतना कुछ कि अब संसार को बांटना बाकी है..
तुझे कितना याद करे,कितना याद करे..
जीवन-यात्रा तेरे बिना आज भी अधूरी है....
  माँ...माँ.....तुम्हे प्रणाम.........

माँ जिस को याद करने का कोई दिन नहीं होता..माँ जिस को भुलाने का कोई वक़्त नहीं होता..माँ जो

जन्म देती है..माँ जो फिर दूजे रूप मे आती है...माँ सिर्फ और सिर्फ माँ होती है,वो कभी अच्छी बुरी नहीं

होती..माँ जो संस्कार देती है,हम निभाए यह खुद की तबियत होती है..माँ जो दूर हो या बेहद नाराज़ भी

हो,मगर हर पल औलाद को सुख माँगा करती है..माँ जो मर कर भी सपनो मे अक्सर दिख जाती है..माँ

जो रो भी ले जी भर के,मगर आंसू सभी से छुपा लेती है..एक माँ ही तो है जो लफ्ज़ सिखाती है,मगर

ज़माना इन लफ्ज़ो को कहने-लिखने पे टोक लगा देता है..माँ जो बेखौफ अकेले भी हर फ़र्ज़ निभा देती

है..माँ तो माँ है...जो बरसो बाद भी,जाने के बाद भी..अपनी याद हम को दिला जाती है...
शृंगार तो तब करते जब सादगी को ना चुना होता..आईना देखने की जरुरत बार-बार तब होती,जब खुद

की सूरत पे सिर्फ अपना ही अक्स होता...काजल को भरा सिर्फ इसलिए इन आँखों मे,रात को जल्द

बुलाने का गर इरादा ना होता...इतना सादा रूप रखा क्यों कर,जिस मे एक झलक गर अपनी माँ की

ना होती..रूप-सुंदरी जो माँ ने ना कहा होता तो शायद आज यह रूप-रंग इतना मनभावन ना होता..

जो माँ ने कहा गर वो सच ना होता तो शृंगार को साथ  ले ही लिया होता....

Thursday 7 May 2020

सरगोशियां,इक प्रेम ग्रन्थ...से हम कितनो से रूबरू हुए..कितने दोस्त बने,कितने दोस्तों से बिछुड़ गए..

सरगोशियां,से हम को कितनो ने जाना..हम मशहूर हुए..हमारे लिखे लफ्ज़ो को हज़ारो ने पढ़ा..कितनो

ने सराहा और ना जाने कितनो की दुआओ मे आ गए..खुशनसीब इतने रहे,किसी ने नफरत से नहीं देखा

और हम बहुतो के चहेते ही बने..किसी ने लफ्ज़ो को जोड़ा जब-जब हमारी ज़िंदगी के पन्नो से,हम उन से

खफा भी हुए..पर फिर भी रहे इतने खुशनसीब,वो सभी लौट के हमारी सरगोशियां के पन्नो पे आए..यह

साँसे शायद किसी भी पल दगा दे ना जाए,हम बार-बार हज़ारो बार इन्ही पन्नो पे लौट आए..ज़िंदगी तो

अब भरोसे लायक रही नहीं इसलिए आप सभी से लफ्ज़ो के ज़रिए गुफ्तगू करते रहे..दोस्तों..तागीद

करते है और गुजारिश भी..ज़िंदा रहे तो भी ना रहे तो भी...आप सभी के दिलो मे दुआ बन के रहे..

यह क़यामत कब छीन ले,क्या कहे..पर बहुत खुश है कि हम ने सरगोशियां के आंचल मे इतने दोस्तों

का बेशकीमती साथ पाया है.....धन्यवाद....आभार...शुक्रिया ...

Wednesday 6 May 2020

अचानक से यह साँसे क्यों हल्की सी लगने लगी है...शायद मौत का खौफ ख़तम हो गया है...डर तो अब

ज़िंदगी जीने से लगने लगा है..कितना खौफ है साँसे लेने के लिए..कितना खौफ है बाहर जाने के लिए..

कितना ही खौफ है अपनों से मिलने के लिए..घर मे ही खौफजदा है ज़िंदगी के लिए...बस एक निश्चय

लिया और साँसे हल्की हो गई..अकेले ही आए थे और जब अकेले ही जाना है तो आंखे क्यों भरनी...

बुरा जब किसी का किया नहीं,बुरा किसी का सोचा नहीं..तभी शायद यह सांस बेहद हल्की होने लगी है..
दर्दे-जंग किस काम की,जब जज्बात ही धुल गए..दिल जो करीब थे कभी,इस गहरे तूफ़ान मे फ़ना हो गए..

वादियां अब बोलती नहीं,ज़हर भर गया है पूरे माहौल मे..रूहे ही शायद पाक नहीं रही कि कलयुग की

आंधी इन पे हावी हो गई..मुहब्बत अब सांस नहीं लेती कि वादों की चमक धूमिल ही हो गई..काश..अब

सतयुग फिर से आ जाए और मुहब्बत की साँसों को जीवन फिर से मिल जाए..गर्दिश के यह सितारे फिर

परवरदिगार को मंजूर हो जाए...जब पाक-साफ़ नहीं रहे यह दिल तो मुहब्बत तो दफ़न हो ही गई...
यह कौन सी दुनियाँ है..यह कौन सा युग है..जहा ना प्यार है ना रिश्तों का सम्मान है..एक बोतल के लिए

आज का इंसान खुद से उलझा,किस सदी का मानव अभिमान है..क्या एक बोतल गिरा देती है इंसान को.

क्या एक बोतल रिश्तों को इस कदर भुला देती है..नाली मे गिरा यह कौन सा इंसान है..खुद के ज़मीर

से पलटा यह कौन सा अभिमान है...फर्ज़ो को भुला दिया,किसी का ताउम्र का प्यार ही भुला दिया..दावे

ना कर कि तू इंसान भी नहीं..एक बोतल जब तेरा अस्तित्व भुला सकती है तो उन रिश्तों के क्या मायने,

जो बरसो से साथ चले और एक बोतल ने चूरचूर कर दिए..किस सदी का इंसान है तू..
बेहद खूबसूरत यह सुबह आई है..ना सही अब इंसानो के लिए,परिंदो को यह साफ़ सुबह दिखाने आई

है..खुल के जी लो,हम ने इन परिंदो से कहा..इंसानी ताकत कुछ भी नहीं,बस खौफ करना परवरदिगार

से जो तेरी मूक प्रार्थना का कायल है..बहुत पाक-साफ़ हो तुम जो खुले साफ़ आसमां के अब मालिक हो...

कैद है अब पिंजरे मे इंसा,जो कभी तुम को कैद किया करते थे..खूब-खूब उड़ना अब जी भर के कि यह

इंसा अब तरस के काबिल भी नहीं..
 हर खनक चूड़ियों की नहीं होती...कुछ खनक अरमानों के टूट जाने की भी होती है...बिजली गरज़

जाए और बरखा आ जाए,कितनी बार गरज़ के साथ आंखे भी रोया करती है..क्यों होता है कई बार ऐसे,

आकाश से ओले बेतहाशा गिरते है..मगर चोट जमीं को लगती है...सपनों की नगरी मे एक खूबसूरत सा

राजकुमार घोड़े पे सवार आता है,दुल्हन अपनी को ले जाता है..हकीकत मे एक खुदगर्ज इंसान क्यों एक

गरीब की बेटी को बयाहने से इंकार कर देता है..सपनों की दुनियाँ से परे बहुत परे होती है,हकीकत की

यह दुनियाँ..
 हर खनक चूड़ियों की नहीं होती...कुछ खनक अरमानों के टूट जाने की भी होती है...बिजली गरज़

जाए और बरखा आ जाए,कितनी बार गरज़ के साथ आंखे भी रोया करती है..क्यों होता है कई बार ऐसे,

आकाश से ओले बेतहाशा गिरते है..मगर चोट जमीं को लगती है...सपनों की नगरी मे एक खूबसूरत सा

राजकुमार घोड़े पे सवार आता है,दुल्हन अपनी को ले जाता है..हकीकत मे एक खुदगर्ज इंसान क्यों एक

गरीब की बेटी को बयाहने से इंकार कर देता है..सपनों की दुनियाँ से परे बहुत परे होती है,हकीकत की

यह दुनियाँ..
यह शब्दों की मायानगरी और हम..

    क्यों खड़े है गर्दन झुकाए,काफ़िला तो जाने को है.. दूर-दराज़ से आए यह बादल,एकाएक बरसने को

है..शिद्दत से पुकारा पीछे से किसी ने,आगे रास्ते बहुत कठिन है..ज़मीर जो चुप था अभी तक,कह उठा

अंजाम की परवाह किसे..पाँव तो अब उठ चुके..सर पे बांधा जो कफ़न,डर क्या और खौफ क्या..मिले

या ना मिले मंज़िल,मगर जाना तो उस पार है...दुनियाँ यह इंसानो की  भी नहीं,हम को फ़रिश्तो का

इंतज़ार है..बादल बरस जाए तो क्या,यह कदम अब रुकने को तैयार नहीं..

बेशक फैले है हर तरफ मौत के मेले,किस के लिए बने है अब यह मौत के मेले..दहशत भरा माहौल है,

इंसान ही इंसान से दूर है..क्या पता अब किस के पास बची है कितनी साँसे,और कौन जंग जीते गा हँसते

हँसते..कर्म तो अब ही सामने आए गे,दौलत के भरे ख़ज़ाने कुछ काम ना आए गे..दौलत का सिर्फ एक ही

काम है,रोटी कपडा और मकान..कीमत चुकाने के लिए इस की जरुरत है..बात करे जो साँसों की,बात

करे जो जहान मे फिर से घूम आने की..यह दौलत अब यहाँ भी अपना कोई वज़ूद नहीं रखती..दौलत

बहुत कुछ है मगर खुदा नहीं हो सकती...

Saturday 2 May 2020

दोस्तों..ज़िंदगी की कीमत का एहसास क्यों इन दिनों जयदा होने लगा है..यह तो बरसो पुराना सच है,जितनी साँसे लिखवा कर लाए है,और झोली मे जितनी खुशियाँ-दुःख लिखवा कर लाए है..वो तय है..इंसान कभी भी खुश रहना नहीं जानता...कहते है,वक़्त ही बहुत कुछ सिखा देता है..कभी हम को बहुत खुशियाँ देता है तो अगले पल छीन भी लेता है..जब तक हम कुछ समझ पाए,दर्द-दुःख की चादर हमारे ऊपर होती है..दोस्तों,यह सब तय है कि किस को कब सुख और कब दुःख मिलना है..कभी ज़िंदगी के सच हम १० साल की उम्र मे जान जाते है,कभी यह सच कुछ लम्बे वक़्त बाद समझ पाते है..हर तकलीफ-दुःख बहुत कुछ सिखाता है..दोस्तों,दुःख जब-जब दस्तक दे तो उस का स्वागत करे..जी....ठीक पढ़ा..खुल कर रोए..बहुत खुल कर रोए और उस दुःख उस तकलीफ को भूले नहीं..उस को ही अपनी ताकत बनाए..ताकत मतलब,जब जब आप किसी को दुखी देखे तो उस की मदद करे..किसी के आंसू ना बने,किसी की ख़ुशी बने..जिस ने आप को बहुत दुःख-तकलीफ भी दिया हो,उस को भी दुआ दे..उस की नासमझी के लिए परमात्मा से प्राथना ही करे..मन-रूह को एकदम साफ़ रखे...ख़ुशी और दुःख को जीवन का एक खूबसूरत हिस्सा मान कर चले...वक़्त कोई भी रुकता नहीं..बस हर वक़्त कुछ ना कुछ सीख दे जाता है..मजबूत बने..जब तक जीवन है,जिए..जो मिला उस के लिए भगवान् को शुक्रिया करे,जो छिन गया या नहीं मिला,उस का मलाल ना करे..ज़िंदगी सब को सब कुछ तो नहीं देती..बस एक नेक ईमानदार सच्चे इंसान बने..आप की ईमानदारी आप को ईश्वर के बेहद बेहद करीब ले जाती है..इन शब्दों को सहेज कर रखे..मेरे पिता के द्वारा समझाए गए शब्द है यह...शुभ दिन...

Friday 1 May 2020

इंसानो की  धरती पे बहुत शोर मचा,हमारी हकूमत है तो मर्ज़ी भी हमारी होगी..हकूमत हमारी है तो वज़ूद
भी हमारा ही होगा....भगवान् ने इंतज़ार किया बहुत देर इन इंसानो के सुधरने का...आखिर भगवान् ने कर के ही दिखाया..''.यह दुनियाँ तो है मेरी..तेरा वज़ूद कहाँ तेरा...एक माटी का टुकड़ा और गरूर इतना..तुझे दिया जीवन मैंने क्या सोच कर और तूने क्या जिया इस को क्या सोच कर....अरे बन्दे,यहाँ चलती है मर्ज़ी सारी मेरी..तू साँसे भी अपनी मर्ज़ी से ले नहीं सकता,ना अपनी मर्ज़ी से इन साँसों को विदा कर सकता है..फिर भला बता मुझे,किस की दुनियाँ और किस की मर्ज़ी''  ........दोस्तों,खुद पे किसी भी बात का अभिमान मत करे...यह रूप,यह शरीर,यह दौलत,यह प्यार के धागे,यह नफरत की खाई,लालच और भी इतना कुछ.....सब नश्वर है...किसी का दिल बिलकुल ना दुखाए..साँसे कब कहाँ रूठ जाए..मलाल ही रह जाए गा कि काश हम ने ऐसा गलत ना किया होता.........शुभ दिन...
 तेरी रज़ा से जब पत्ता एक नहीं हिलता तो हम ने कैसे चाहा कि खुद की मर्ज़ी से सब कर ले..खुद की

ही साँसों का हिसाब नहीं रख सकते तो और क्या कर सकते है..एक माटी के पुतले है जो खुद को ही

सहेज नहीं सकते तो दूसरों का क्या कर सकते है..अहंकार से परे है क्या हम मे,बस खुद को कभी

कभी गलती से महान समझ लेते है..रज़ा तेरी हो तभी तो अगली सांस ले पाते है..खुद की गलतियों से

कब कहां कुछ सीख पाते है,तभी तो रोज़ कोई ना कोई गलती कर इंसान ही कहलाते है...
नींद से कह रहे है,चल आँखों के द्वार चले...पलकों का शामियाना बिछा और दिल को सकून का पता

बता...ज़िद्द करने की बारी अब किस की है,करवट बदलने से पहले यह राज़ अपनी रूह को बता...

जिस्म अगर सो भी जाए गा तो क्या दिमाग उस का साथ दे पाए गा..शायद हां शायद नहीं..सपनों के

ताने-बानों मे रूह का वज़ूद बिलकुल ही छिल जाए गा..यह बोलती भी कहां है,महसूस करने के लिए

अब इस के पास रह ही क्या गया है..मगर नींद तो फिर भी कह रही है,चल ना अब आँखों के द्वार चले..
अचानक से क्यों बरस गया मौसम,शायद आसमां से किसी के सिसकने की आवाज़ आई है...देखा जो

बाहर जा कर,यह तो सिलसिलेवाज़ बरसने की नौबत आई है...देख रहे है नज़ारा इस मौसम का,क्या

इस ने पूरी रात बरसने की कसम खाई है...दहलीज़ पे गिरी कुछ बूंदे बारिश की,लगा जैसे क़यामत की

रात आई है..खुदा खैर करे,आज किस की साँसों पे इस मौसम की कहर आई है..एहसास हुआ खुद

को,यह जो छलक आए बरबस आंसू हमारी आँखों से,कहीं हमारी ही साँसों के निकलने की रज़ा खुदा

से तो नहीं आई है...
आवाज़ खुद से खुद की आई और कुछ सपने पुराने आँखों मे कौंध गए...सम्भाल के रख दिया इन्हे

अलमारी के किसी खास बक्से मे,आखिर यह भी कभी अपने हुआ करते थे..वक़्त कब कैसे बदल

जाता है..यादों का बवंडर बहुत बहुत कुछ सिखा जाता है..जिस वक़्त को हम ने गले लगाया था कभी

बेहद प्यार से वो वक़्त अचानक रेत की तरह हाथ से हमारे फिसल गया...तक़दीर को दोष दे या अपने

सपनो को,जिन की उम्र थी इतनी छोटी कि हम खुल के जीना सीख़ पाते,यह हम से छिटक कर बहुत

दूर चले गए...
आवाज़ खुद से खुद की आई और कुछ सपने पुराने आँखों मे कौंध गए...सम्भाल के रख दिया इन्हे

अलमारी के किसी खास बक्से मे,आखिर यह भी कभी अपने हुआ करते थे..वक़्त कब कैसे बदल

जाता है..यादों का बवंडर बहुत बहुत कुछ सिखा जाता है..जिस वक़्त को हम ने गले लगाया था कभी

बेहद प्यार से वो वक़्त अचानक रेत की तरह हाथ से हमारे फिसल गया...तक़दीर को दोष दे या अपने

सपनो को,जिन की उम्र थी इतनी छोटी कि हम खुल के जीना सीख़ पाते,यह हम से छिटक कर बहुत

दूर चले गए...
मौत और ज़िंदगी...यह कैसा खेल है कुदरत का..कोई इस के खौफ से परेशां है तो कही कोई इस को

खुद ही गले लगाने को बेताब है...साँसे लेने की भीख मांग रहा है कही कोई मालिक से तो कोई मालिक

को खुद ही अपनी साँसे देना चाहता है..परेशान दोनों है,क्या मोल मौत का इतना जयदा है..अजूबा है

यह ज़िंदगी भी और मौत भी...कोई जीना चाहता है तो कोई ज़िंदगी को छोड़ देना चाहता है..कोई लिख

जाता है जाते-जाते अपनी मौत की वजह पन्नो पे तो कोई ज़िंदगी पा कर ख़ुशी से पन्नो को मुबारकबाद

लिखता है...

दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का.... .....

 दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का,हम ने अपने लबो को सिल लिया...कुछ कहते नहीं अब इस ज़माने  से कि इन से कहने को अब बाकी रह क्या गया...नज़रे चु...