शृंगार तो तब करते जब सादगी को ना चुना होता..आईना देखने की जरुरत बार-बार तब होती,जब खुद
की सूरत पे सिर्फ अपना ही अक्स होता...काजल को भरा सिर्फ इसलिए इन आँखों मे,रात को जल्द
बुलाने का गर इरादा ना होता...इतना सादा रूप रखा क्यों कर,जिस मे एक झलक गर अपनी माँ की
ना होती..रूप-सुंदरी जो माँ ने ना कहा होता तो शायद आज यह रूप-रंग इतना मनभावन ना होता..
जो माँ ने कहा गर वो सच ना होता तो शृंगार को साथ ले ही लिया होता....
की सूरत पे सिर्फ अपना ही अक्स होता...काजल को भरा सिर्फ इसलिए इन आँखों मे,रात को जल्द
बुलाने का गर इरादा ना होता...इतना सादा रूप रखा क्यों कर,जिस मे एक झलक गर अपनी माँ की
ना होती..रूप-सुंदरी जो माँ ने ना कहा होता तो शायद आज यह रूप-रंग इतना मनभावन ना होता..
जो माँ ने कहा गर वो सच ना होता तो शृंगार को साथ ले ही लिया होता....