Monday 18 May 2020

पराकाष्ठा प्रेम की इस से ऊपर क्या होगी  कि वो अपने प्रियतम मे ही,अपना अराध्या ढूंढ़ती रही..वो

बेशक राधा जैसी ना थी,पर राधा के जैसे प्रेम का बंधन शिद्दत से निभाती रही..बिन बताए बिन जताए.

वो धर्म अपना चुपके से निभाती रही..वो शिव भी रहा उस का,वो गौरी बन उस के विष को अमृत मानती

रही...रूप राम का भी देखा इसी प्रियतम मे उस ने, और सीता सा सोलाना रूप लिए धरा मे समा जाने

को तैयार रही..यह कौन सा अनजाना अनदेखा बंधन रहा,जिस का कोई नाम ना था..अनंतकाल का था

या सदियों का..यह भी तो ज्ञात ना था..ख़ामोशी के इस बंधन मे शिकायत का इतना सा दौर था..वो

डूबती रही इबादत मे उस की और वो उस को कभी समझ ही ना सका..

दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का.... .....

 दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का,हम ने अपने लबो को सिल लिया...कुछ कहते नहीं अब इस ज़माने  से कि इन से कहने को अब बाकी रह क्या गया...नज़रे चु...