वो शायद गुनाहों की बस्ती थी...सच-झूठ के वादों पे रुकी,कोई मायानगरी थी..सोने की चमक से सजा
कर रखा था उस बस्ती को...मन हमारे का कोना, शुरू से ही इस बस्ती का सच जानता था..उस झूठ
को सच मान उसी बस्ती मे रहा करता था..खुद पे था इतना गरूर और विश्वास खुद पे खुद से भी जयदा
था..वो चमक सच मे सोने की नहीं..फिर भी सोने की हो जाए,हम एहसासों की ईंट एक एक कर तह
जमाते थे..दुआ के महीन धागे और इबादत का सच्चा रंग..नूर कही पे भी ले आता है..पर हम बहुत
नादान थे..भूल गए,यह कलयुग है..यहाँ जो दीखता है वो सच होता नहीं..दुआ भी सच्ची थी और इबादत
भी पाक...शायद सोने का वो रंग अंदर तक नकली था..आज भी खरे सोने का रंग भरा है हमारे दामन
मे,कुदरत का करिश्मा शायद इस चमक को खरे सोने से सच मे रंग जाए...
कर रखा था उस बस्ती को...मन हमारे का कोना, शुरू से ही इस बस्ती का सच जानता था..उस झूठ
को सच मान उसी बस्ती मे रहा करता था..खुद पे था इतना गरूर और विश्वास खुद पे खुद से भी जयदा
था..वो चमक सच मे सोने की नहीं..फिर भी सोने की हो जाए,हम एहसासों की ईंट एक एक कर तह
जमाते थे..दुआ के महीन धागे और इबादत का सच्चा रंग..नूर कही पे भी ले आता है..पर हम बहुत
नादान थे..भूल गए,यह कलयुग है..यहाँ जो दीखता है वो सच होता नहीं..दुआ भी सच्ची थी और इबादत
भी पाक...शायद सोने का वो रंग अंदर तक नकली था..आज भी खरे सोने का रंग भरा है हमारे दामन
मे,कुदरत का करिश्मा शायद इस चमक को खरे सोने से सच मे रंग जाए...