Sunday 17 May 2020

''प्रेम ही था,अरे जाने दो'' यह शब्द पढ़े कही और सन्न हो गए..क्या प्रेम कोई वस्तु है,क्या प्रेम कोई

पैसो से खरीदी कोई चीज़ है...जिस ने भी लिखा,क्या सोच कर लिखा...प्रेम के मायने उस के लिए शायद

किसी वस्तु जैसे ही थे..प्रेम का स्वरुप उस के लिए यक़ीनन कोई ऐसी चीज़ रही होगी,जिस का  मूल्य रद्दी

के कागज़ जैसा होगा...फिर होगी नई किताब,और पन्ने भी होंगे नए-नए..किताब तो आखिर किताब है,

वक़्त ढले रद्दी बन जाये गी..प्रेम को क्यों जाने दिया..प्रेम की आह शायद जानी ना होगी..आंसुओ का

मोल कहां पता होगा...दिल था या कोई चट्टान पुरानी..याद रखना था,तेरी इमारत भी होगी इक दिन

बूढ़ी और पुरानी....

दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का.... .....

 दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का,हम ने अपने लबो को सिल लिया...कुछ कहते नहीं अब इस ज़माने  से कि इन से कहने को अब बाकी रह क्या गया...नज़रे चु...