तेरे गुनाहो के बोझ से अब तो यह धरती भी काँप रही..रुक जा रे इंसान,थोड़ी मर्ज़ी अब कुदरत की भी
चलने दे...कितना और खिलाफ चलना है तुझे इस कुदरत के,जब तबाह वो कर दे गी तुझे सम्पूर्णता से..
तब ना दौलत साथ दे गी तेरा,ना कोई अपना पास होगा तेरा...रह जाए गी सन्नाटे मे चीखे तेरी,उस की
आवाज़ भी किसी तक ना पहुंच पाए गी...वक़्त तो अभी भी दे रही है धरती तुझ को,मगर खुद का गुमा
तेरा अभी भी गया नहीं...यह धरती माँ है हमारी,ना दे इस को इतनी तकलीफ कि छाती फट जाए माँ
की तुझे तबाह करने के लिए...
चलने दे...कितना और खिलाफ चलना है तुझे इस कुदरत के,जब तबाह वो कर दे गी तुझे सम्पूर्णता से..
तब ना दौलत साथ दे गी तेरा,ना कोई अपना पास होगा तेरा...रह जाए गी सन्नाटे मे चीखे तेरी,उस की
आवाज़ भी किसी तक ना पहुंच पाए गी...वक़्त तो अभी भी दे रही है धरती तुझ को,मगर खुद का गुमा
तेरा अभी भी गया नहीं...यह धरती माँ है हमारी,ना दे इस को इतनी तकलीफ कि छाती फट जाए माँ
की तुझे तबाह करने के लिए...