वो पिंजरा तो ना था...अहसासों का अम्बार था..पिंजरे के हर किनारे पे मुहब्बत का नायाब दौर था...सजा
दिया उस के हर कोने को,वो किसी ताजमहल से कम ना था...छोटा सा था मगर मीठे लफ्ज़ो का भंडार
था...कुछ अनकही कुछ अनसुनी गहरी बातो का माहौल था..हंसी भी गूंजती थी तो कभी शरारतों का
खुशनुमा दौर भी था...प्रेम का रंग इतना गहरा कि मिसाल देने के लिए,कही कोई और ना था...टप-टप
बरसात मे कौन कितना भीगा,वो तो बस बेमिसाल था..पिंजरा खुला तो क्यों खुला,अहसासों का दौर जैसे
उड़ ही गया...प्रेम तो प्रेम होता है,पिंजरे मे है या पिंजरे से बाहर...मर के भी जो ना टूटे,हां...यह प्रेम है..