संग खेले संग बड़े हुए..कौन कब किस के प्रेम मे इक दूजे का मीत बना..वो थी उस की जीवन-रेखा..
उस को लगती थी अपनी भाग्य-विधाता..वो उम्र मे उस से जयदा थी..पर वो फिर भी उस का खवाब
ही थी..ज़िद थी उस संग जीने-मरने की..वो समझाती पर वो उस को अपनी राधा कह बुलाता..यक़ीनन
वो कृष्ण था उस का..झूम उठा उन का संसार..खिले आंगन मे फूल इक बार..उम्र का दौर आया जब
राधा के बालो मे चांदी आई और चेहरे पे कुछ लकीरें भी आई..प्रेम का यह कौन सा रूप आया जब उस
का अपना कृष्णा उस से दूर हो चला..क्या प्रेम महज़ इक देह का सौदा था..क्या देह-रूप ही सब कुछ
था..वो टूटी तो इतना टूटी..फिर उभर नहीं पाई..पंचतत्व मे लीन हो गई और तब कृष्णा को बुद्धि आई..
प्रेम तो यह कही से ना था..क्या कृष्णा को सदा ऐसा ही रहना था...आज है वो राधा का दोषी,पर
अब है सब सूना सूना और ज़िंदगी कृष्णा की हो गई खाली खाली...