सिर्फ अपना स्वार्थ ना सोच,प्रेम स्वार्थ से परे इक खूबसूरत बंधन है...नाम इस बंधन को मिले ना मिले,
पर फिर भी यह प्रेम ही रहता है...किसी को टूट के चाहना और बदले मे कुछ भी ना चाहना..प्रेम नाम
इसी का है..प्रेम तो खुद ही चल कर आता है..मन होगा जब पवित्र धारा जैसा,निर्मल होगा गंगा के जैसा..
यह खुद ही खुद से परिशुद्ध हो जाए गा..मांगने से प्रेम कहां मिलता है..दर्द किसी और को दे कर प्रेम
वहां कब रुकता है..ढाई अक्षर कितने सरल है,निभा कर ही जाना जाए गा..स्वार्थ आ गया जब बीच मे
तो यह प्रेम बहुत दूर हो जाए गा...