वो मेहमान नवाज़ी तो ना थी..मील के पत्थर की तरह बेवजह की ख़ामोशी ही थी...गुज़र गया अरसा
मगर बेपरवाही आज भी वैसी ही थी...तन्हाई मे कोई गीत पुराना सुना तो आंख क्यों उस की भर आई
थी..जज़्बात मेहमान नवाज़ी की बेला पे भी खामोश थे...कुछ चुरा कर अपने हसीन खवाबों से,वो लाई
थी...मुन्तज़िर तो नहीं मगर रौशनी फिर अँधेरे मे उभर आई थी...गहन ख़ामोशी थी पर रात की कालिमा
अभी भी वैसे ही छाई थी...