तड़प के जो मदहोश हो जाए वो शब्द हू मैं...जो भर दे जादू ज़िंदगी मे वो हल्की सी खलिश हू मैं...
जो रात-रात भर सोने ही ना दे ऐसी हुस्ने-मल्लिका हू मैं..जो दिन को बदल दे शाम के धुंधलके मे,
खुदा की ऐसी सौगात हू मैं...अपने पे जो आ जाऊ तो कहर का इक नाम हू मैं...बदलना सीखा है
मगर तोहमतें कोई लगा दे ऐसी,तो वापिस उस राह लौटना मंजूर ही नहीं...हुस्ने-मल्लिका कहते है
लोग मगर गरूर का कोई सामान मेरे पास नहीं..चंचल छाया हू परवरदिगार की,जिस राह से निकलू
खुशियों छोड़ दू वही...तभी तो मिला कुदरत से नाम हुस्ने-मल्लिका मुझे...