गुजर रहे है तेरे ही शहर की सरहदों से,अपनी खुशबू के ढ़ेरों को बिखेरते हुए...जहाँ-जहाँ रख रहे है
अपने यह कदम,उन्हीं कदमो के तहत याद भी कर रहे है तुम्हे..देखना यह बरसात रुके गी आज..और
खुशबू हमारी बिखरे गी आज...मुनासिब हो इस खुशबू को समेट लेना रूह मे अपनी..रोज़-रोज़ तेरे ही
शहर की सरहदों से नहीं गुजरे गे हम...ख़ुशी से महक रहे है आज कि तेरे ही शहर की माटी मे अपनी
एक पहचान छोड़ के अब जा रहे है हम...
अपने यह कदम,उन्हीं कदमो के तहत याद भी कर रहे है तुम्हे..देखना यह बरसात रुके गी आज..और
खुशबू हमारी बिखरे गी आज...मुनासिब हो इस खुशबू को समेट लेना रूह मे अपनी..रोज़-रोज़ तेरे ही
शहर की सरहदों से नहीं गुजरे गे हम...ख़ुशी से महक रहे है आज कि तेरे ही शहर की माटी मे अपनी
एक पहचान छोड़ के अब जा रहे है हम...