''प्रेम को पढ़ते है किताबों मे...प्रेम को पढ़ा है वेदों-ग्रंथो मे..कैसा होता है यह प्रेम..कितनी सीमा तक रहता
है यह प्रेम...कब तक रहता है यह प्रेम'' यह सवाल दाग दिए उस अजनबी से शख्स ने...''''प्रेम,रूह का वो
धागा है जो होता है महीन बहुत,मगर इबादत की उस इमारत पे बसता है जहां सिर्फ गिनती के प्रेमी ही
पहुंच पाते है...क्यों कि ईमानदारी की रस्में विरले ही निभा पाते है..प्रेम ऊब जाने का जज़्बा नहीं..साथी
को ग़ुरबत मे छोड़ किसी दौलतमंद का हाथ थाम लेना,प्रेम कदापि नहीं..शाश्वत प्रेम तो वही कहलाता है,
जहां जिस्म से जयदा रूह का बंधन होता है..तभी तो रूहों का प्रेम अनंतकाल तक और शाश्वत रहता है..
है यह प्रेम...कब तक रहता है यह प्रेम'' यह सवाल दाग दिए उस अजनबी से शख्स ने...''''प्रेम,रूह का वो
धागा है जो होता है महीन बहुत,मगर इबादत की उस इमारत पे बसता है जहां सिर्फ गिनती के प्रेमी ही
पहुंच पाते है...क्यों कि ईमानदारी की रस्में विरले ही निभा पाते है..प्रेम ऊब जाने का जज़्बा नहीं..साथी
को ग़ुरबत मे छोड़ किसी दौलतमंद का हाथ थाम लेना,प्रेम कदापि नहीं..शाश्वत प्रेम तो वही कहलाता है,
जहां जिस्म से जयदा रूह का बंधन होता है..तभी तो रूहों का प्रेम अनंतकाल तक और शाश्वत रहता है..