शायद यह ख़ामोशी बहुत ही गहरी है तभी तो, हमारी आवाज़ तुम्हारे शहर की दीवारों से टकरा कर
वापिस लौट रही है...बहुत ज़ोर से पुकारा तुम को,मगर यह आवाज़ तो हमारे ही शहर मे घूम रही है..
हल्क़ से लगता है,आवाज़ की बुलंदी ही गायब है...कदम भी रुक गए है चलते-चलते,शायद ताकत इन
की भी कमजोर होने लगी है..आँखों के किनारे भीगे तो नहीं पर इंतज़ार के बोझ से जैसे सूख गए है...
आज के दिन को सुभान-अल्लाह कहना मुनासिब होगा,खास दिन है तभी तो आवाज़ का परिंदा इन
दीवारों से टकरा कर हमी तक लौट रहा है...
वापिस लौट रही है...बहुत ज़ोर से पुकारा तुम को,मगर यह आवाज़ तो हमारे ही शहर मे घूम रही है..
हल्क़ से लगता है,आवाज़ की बुलंदी ही गायब है...कदम भी रुक गए है चलते-चलते,शायद ताकत इन
की भी कमजोर होने लगी है..आँखों के किनारे भीगे तो नहीं पर इंतज़ार के बोझ से जैसे सूख गए है...
आज के दिन को सुभान-अल्लाह कहना मुनासिब होगा,खास दिन है तभी तो आवाज़ का परिंदा इन
दीवारों से टकरा कर हमी तक लौट रहा है...