Sunday 28 June 2020

शायद यह ख़ामोशी बहुत ही गहरी है तभी तो, हमारी आवाज़ तुम्हारे शहर की दीवारों से टकरा कर

वापिस लौट रही है...बहुत ज़ोर से पुकारा तुम को,मगर यह आवाज़ तो हमारे ही शहर मे घूम रही है..

हल्क़ से लगता है,आवाज़ की बुलंदी ही गायब है...कदम भी रुक गए है चलते-चलते,शायद ताकत इन

की भी कमजोर होने लगी है..आँखों के किनारे भीगे तो नहीं पर इंतज़ार के बोझ से जैसे सूख गए है...

आज के दिन को सुभान-अल्लाह कहना मुनासिब होगा,खास दिन है तभी तो आवाज़ का परिंदा इन

दीवारों से टकरा कर हमी तक लौट रहा है...

दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का.... .....

 दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का,हम ने अपने लबो को सिल लिया...कुछ कहते नहीं अब इस ज़माने  से कि इन से कहने को अब बाकी रह क्या गया...नज़रे चु...