क्यों बुझे-बुझे से हो..कभी मुस्कुराया भी करो...ज़िंदगी जो भी दे देती रहे,शुक्राना कर इस ज़िंदगी को
जी भी लिया करो...कल था बहुत कुछ पास हमारे,तब भी तुम को और पाने का इंतज़ार था...तब भी
थक जाते थे तुम्हारे कदम और ज़िंदगी मे अजीब सा वीराना था..हम ने सीखा है जीना जीवन इन नदियों
से,इन झरनों से...छन-छन बरसती बरखा से...गर दौलत दिल को पूरा सकून देती तो हम भी दौलत को
खुदा कह देते..अरे पगले,उठ और देख बाहर क्या नज़ारा है..फूल खिले है जगह-जगह और फ़िज़ा हद
से जयदा प्यारी है..ना रहो बुझे-बुझे कि हम ने तो अपने लबो को मुस्कुराना ही सिखाया है...
जी भी लिया करो...कल था बहुत कुछ पास हमारे,तब भी तुम को और पाने का इंतज़ार था...तब भी
थक जाते थे तुम्हारे कदम और ज़िंदगी मे अजीब सा वीराना था..हम ने सीखा है जीना जीवन इन नदियों
से,इन झरनों से...छन-छन बरसती बरखा से...गर दौलत दिल को पूरा सकून देती तो हम भी दौलत को
खुदा कह देते..अरे पगले,उठ और देख बाहर क्या नज़ारा है..फूल खिले है जगह-जगह और फ़िज़ा हद
से जयदा प्यारी है..ना रहो बुझे-बुझे कि हम ने तो अपने लबो को मुस्कुराना ही सिखाया है...