पांव फैलाए बैठे है समंदर के इस खारे नीर मे...और सोच भी रहे है,इस की गहराई को...अक्सर इसी
को सोचा करते है..इस की गहराई को नापने की कोशिश मे,खुद अपने पांव इस के खारे नीर मे भिगो
दिया करते है...देर तक भिगोने से पांव अपने,हम को लगता है किसी दिन यह खारे से मीठा हो जाए गा..
अपने यकीन पे है यकीन इतना..जो यह मीठा ना हुआ तो क्या हुआ,इस के खारेपन को निगल जाए गे..
रह जाए गा जो नीर बाकी वो हमारे पांव के छूने से पारस तो हो ही जाए गा....
को सोचा करते है..इस की गहराई को नापने की कोशिश मे,खुद अपने पांव इस के खारे नीर मे भिगो
दिया करते है...देर तक भिगोने से पांव अपने,हम को लगता है किसी दिन यह खारे से मीठा हो जाए गा..
अपने यकीन पे है यकीन इतना..जो यह मीठा ना हुआ तो क्या हुआ,इस के खारेपन को निगल जाए गे..
रह जाए गा जो नीर बाकी वो हमारे पांव के छूने से पारस तो हो ही जाए गा....