प्रेम की यह कौन सी सीमा थी जहां प्रेम सिर्फ नदिया की बहती धारा थी...वो उस की प्रेयसी थी और वो
उस की साँसे था...एक था आसमां के उस पार तो दूजा जमीं का किनारा था...मिलना कभी लिखा ना था
पर मिलन फिर भी मुकम्मल था...गज़ब पे गज़ब,ना प्रेम था जिस्म का ना दौलत का कोई नामो-निशां ही
था...फिर भी रोज़ का आना-जाना था...इंतिहा प्रेम की ना जानते थे दोनों,ईमानदारी का दोनों पे पहरा
था..बस खुदा गवाह था उन दोनों का...कि यह प्रेम दुनियां से परे इक इबादत था...
उस की साँसे था...एक था आसमां के उस पार तो दूजा जमीं का किनारा था...मिलना कभी लिखा ना था
पर मिलन फिर भी मुकम्मल था...गज़ब पे गज़ब,ना प्रेम था जिस्म का ना दौलत का कोई नामो-निशां ही
था...फिर भी रोज़ का आना-जाना था...इंतिहा प्रेम की ना जानते थे दोनों,ईमानदारी का दोनों पे पहरा
था..बस खुदा गवाह था उन दोनों का...कि यह प्रेम दुनियां से परे इक इबादत था...