कैसा नशा है यह गुफ्तगू का...आँखों के मोती फ़िर झर-झर कर बह निकले है...इन का फ़साना सिर्फ
इतना है कि यह भी अब तेरे अपने है...भीगी है चुनरी भीगे है गेसू पर चाँद के दीदार को फ़िर तरस रहे
है यह आंसू...ख़ुशी मिली तो भी बह गए..तूने समझा तो भी सब सह गए...आसमां का चाँद भी तो ऐसा
ही है..कभी निख़र आता है बादलों की ओट से तो कभी छुप जाता है बादलों की गोद मे..यह चांदनी भी
कमाल है,तरसती है उसी के दीदार को जो उस का हो कर भी उस के कभी बेहद करीब है तो कभी
बहुत दूर हो कर भी उसी की आगोश का मालिक है...