Saturday 15 August 2020

 कैसा नशा है यह गुफ्तगू का...आँखों के मोती फ़िर झर-झर कर बह निकले है...इन का फ़साना सिर्फ 


इतना है कि यह भी अब तेरे अपने है...भीगी है चुनरी भीगे है गेसू पर चाँद के दीदार को फ़िर तरस रहे 


है यह आंसू...ख़ुशी मिली तो भी बह गए..तूने समझा तो भी सब सह गए...आसमां का चाँद भी तो ऐसा 


ही है..कभी निख़र आता है बादलों की ओट से तो कभी छुप जाता है बादलों की गोद मे..यह चांदनी भी 


कमाल है,तरसती है उसी के दीदार को जो उस का हो कर भी उस के कभी बेहद करीब है तो कभी 


बहुत दूर हो कर भी उसी की आगोश का मालिक है...

दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का.... .....

 दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का,हम ने अपने लबो को सिल लिया...कुछ कहते नहीं अब इस ज़माने  से कि इन से कहने को अब बाकी रह क्या गया...नज़रे चु...