Sunday 30 August 2020

 वो रंगे-जमाल था या रंगे-कमाल था...मगर हकीकत से परे वो बेवफाई का इक निशान था...आसमान 


मे छाई धुंध की तरह बिगड़ा कोई नवाब था...हसरतों का कोई जनाजा ना निकले,इस से बेखबर वो 


शाम का कोई हिजाब था...कागज़ कलम दवात कहां,पन्नो के शहर का कोई पुरानी सलतनियत लिए 


इक उजड़ा हुआ नाम था...सदियों से खड़े इक पेड़ की तरह वो धूप-छाँव का कोई पहरेदार था...वो 


क्या कोई रंगे-जमाल था या कोई बिगड़ा नवाब था....

दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का.... .....

 दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का,हम ने अपने लबो को सिल लिया...कुछ कहते नहीं अब इस ज़माने  से कि इन से कहने को अब बाकी रह क्या गया...नज़रे चु...