वो रंगे-जमाल था या रंगे-कमाल था...मगर हकीकत से परे वो बेवफाई का इक निशान था...आसमान
मे छाई धुंध की तरह बिगड़ा कोई नवाब था...हसरतों का कोई जनाजा ना निकले,इस से बेखबर वो
शाम का कोई हिजाब था...कागज़ कलम दवात कहां,पन्नो के शहर का कोई पुरानी सलतनियत लिए
इक उजड़ा हुआ नाम था...सदियों से खड़े इक पेड़ की तरह वो धूप-छाँव का कोई पहरेदार था...वो
क्या कोई रंगे-जमाल था या कोई बिगड़ा नवाब था....