पैजनियाँ जब भी निष्पाप हो गई..सारे जहां को साफ़-पाक कर गई...बेशक तब वो कही भी बजती रही..
चाहे वो बाज़ार के उस बदनाम शहर मे बजी या फिर साजन के आंगन मे बजी...आँखों मे शर्म का पहरा
लिए वो अपनी हर धुन से यह संसार महकाती रही...बाज़ार था तो क्या हुआ,वो खुद मे कही से भी दाग़दार
ना थी...खुले आसमां तले आई तो पैजनिया का एक एक घुंगरू सभी के रास्ते छोड़ती चली गई...रहमतों
का असर सभी पे पढ़े,इस नेक विचार को साथ लिए वो हर मोड़ पे सन्देश अपना देती रही...