मुहब्बत का वो कौन सा सरूर था..वो प्यार का कौन सा रूप था..जीता रहा संग जिस के,एक दिन छोड़
आया उसी को जिस्म के बाजार मे...दौलत उस का शौक था,सिक्कों को गिनना मुहब्बत का फितूर था..
मुहब्बत सौदा भी है यह जान कर वो सदमे मे आ गई...बोली उस की लगती रही और वो हर रात बिकती
रही..मुहब्बत उस की पाक थी,इबादत मे भी कोई दाग ना थी...आह उस के सीने से जो निकली,उस ने
उस हैवान को ऐसी जगह पहुंचा दिया...आज ना उस के पास ना दौलत है ना कोई मुहब्बत का दावेदार
है...इबादत का रुतबा तो देखिए वो आज किसी शहंशाह की मुमताज़-ऐ-खास है...