सोने का कलश और चांदी की थाली...हीरे-जेवरात से सजी इक पोशाक भारी...घर के बाहर खड़ी इक
बड़ी सी गाड़ी...प्यार से बोले वो,चलो चलते है मंदिर..भगवान् को अर्पित करने अपने भाव और मांग ले
उन से हम दोनों के लिए प्यार के कुछ और मजबूत धागे...मन वितृष्णा से भर आया...क्या भगवान् को
पाने के लिए इन सब की जरुरत होती है...बोले तो कुछ भी नहीं...अपने पैदल कदमो से चले मंदिर तो
अहसास उन को दिलाया कि खुद को कष्ट देना है तभी तो भगवान् को पाना है...किसी भूखे को खाना
देना है तभी तो पुण्य कमाना है.....