सड़क के किनारे-किनारे चल ही रहे थे ...इसी सड़क के इक मोड़ पर इक दरख़्त मिला,जो था अपनी
तमाम शाखाओं से भरा पूरा..धूप थी बहुत जालिम,बैठ गए कुछ देर इस की छाँव तले...थोड़ा सकून
मिला फिर चलने लगे अपनी राह पे उसी तरह..रुक जाओ,आगे राह अभी कठिन है बहुत ...झुलस
जाओ गे तुम,थकान से भर जाए गा यह तन...आँखों को उठाया,इक पल देखा फिर पूछा...क्यों साथ
देने का इरादा है..उस की ख़ामोशी ने हम को समझाया..कोई साथ नहीं चलता,किसी के पास हिम्मत
का इतना खज़ाना भी नहीं होता..बिंदास होना है गर मकसद अपने मे तो खुद से सफल होना है...