वो मासूम सी हंसी,वो खनकता अंदाज़...दिल की परतो का बहुत धीमे,बहुत ही धीमे से खुलना...
कोई खता की भी नहीं,मगर झट से माफ़ी-नामा क़बूल करना..कभी कभी बात करते करते आवाज़
का भर आना,और तभी बात को बदल देना...समझते तो हम भी है,मगर नज़ाकत वक़्त की जानते
भी है..वो तमाम काली परते मिटाना हम को आता है..शर्त बस इतनी सी है,कि मुस्कुराने का खज़ाना
दिल के तहखाने मे अभी तक बंद क्यों है..
कोई खता की भी नहीं,मगर झट से माफ़ी-नामा क़बूल करना..कभी कभी बात करते करते आवाज़
का भर आना,और तभी बात को बदल देना...समझते तो हम भी है,मगर नज़ाकत वक़्त की जानते
भी है..वो तमाम काली परते मिटाना हम को आता है..शर्त बस इतनी सी है,कि मुस्कुराने का खज़ाना
दिल के तहखाने मे अभी तक बंद क्यों है..