बर्फ की चादर के तले है दबे...और वो सोच रहे है कि हम है गरूर की इंतिहा से भरे..अब इस दुनियाँ
को कैसे समझाए कि इसी धरा पे टिके है हम..पाँव उठाए तो लोग फूल बरसाए,इस मे क्या खता है मेरी..
चुप रहे तो नाज़ उठाए,अब बोलिए कहाँ रह गई मर्ज़ी मेरी..परदों मे छिप जाए तो ढूंढ़ना हम को,हो जाती
है दुनियाँ की ज़िम्मेदारी..करे तो क्या करे..गरूर से नहीं भरे है,बस खुद ही खुद को समझ रहे है..
को कैसे समझाए कि इसी धरा पे टिके है हम..पाँव उठाए तो लोग फूल बरसाए,इस मे क्या खता है मेरी..
चुप रहे तो नाज़ उठाए,अब बोलिए कहाँ रह गई मर्ज़ी मेरी..परदों मे छिप जाए तो ढूंढ़ना हम को,हो जाती
है दुनियाँ की ज़िम्मेदारी..करे तो क्या करे..गरूर से नहीं भरे है,बस खुद ही खुद को समझ रहे है..