Friday, 27 March 2020

जितनी ख़ामोशी बाहर है..उस से जयदा कहीं अंदर है..बोल जो बोलते है तो वो दीवारों से टकरा कर

वापिस हमीं तक क्यों लौट आते है..यह दीवारें यह झरोखे,यह परदों से झांकती हल्की हल्की सी

रौशनी...कुछ तो ऐसा है जो दिमाग मे मचा रहा है खलबली...अब याद आ रहा है,ठीक कहा था तुम

ने..मुझे मुझ से जयदा यह दीवारें,यह झरोखे,यह परदे..मुझे पूरी तरह जानते है..फूलों पे ठहरी ओस

की बूंदे क्यों हम को देख,दोस्ती का हाथ बड़ा देती है..तभी यह ख़ामोशी आज बाहर से जयदा कहीं

अंदर है...

दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का.... .....

 दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का,हम ने अपने लबो को सिल लिया...कुछ कहते नहीं अब इस ज़माने  से कि इन से कहने को अब बाकी रह क्या गया...नज़रे चु...