साज़ जो बजता रहा बिन सुर और ताल के..जब जब बज़ा,अपनी ही पहचान के साथ मे..गर्दिशो के
ज़माने थे,मगर यह तब भी रहा अपनी शान मे...देने साथ अपना ,आए कई सुर-ताल भी..मुस्कुरा कर
किया उन को अलविदा..साज़ की पहचान तो खुद से है..साज़ है तभी तो आवाज़ है..चलना अकेले ही
है साज़ को,कौन सा सुर और कौन सी ताल..साथ आखिर तक कोई दे गा नहीं..दो दिन का साथ और
फिर जुदाई लम्बी..इतना सहना साज़ की फितरत ही नहीं..
ज़माने थे,मगर यह तब भी रहा अपनी शान मे...देने साथ अपना ,आए कई सुर-ताल भी..मुस्कुरा कर
किया उन को अलविदा..साज़ की पहचान तो खुद से है..साज़ है तभी तो आवाज़ है..चलना अकेले ही
है साज़ को,कौन सा सुर और कौन सी ताल..साथ आखिर तक कोई दे गा नहीं..दो दिन का साथ और
फिर जुदाई लम्बी..इतना सहना साज़ की फितरत ही नहीं..