क्यों होती जा रही है एक ही खता हम से यू हर बार..शायद बिखरे थे कितने अरसे से,खौफ मे जी
रहे थे..डर मौत से कभी लगा ही नहीं..बस ज़िंदगी को जीने से डरते रहे..दायरा जानते है अपना,
मंज़िल पाने की कोई ख्वाईश ही नहीं..जानते है तक़दीर ने मिलने की लकीर बनाई ही नहीं..तक़दीर
से तो शिकायत वो करते है,जो कमजोर होते है..हम तो तक़दीर को शुक्राना ही देते आए है,जो जितना
मिला हम को,वो कितनो को मिल पाता है..इंसान है कही ना कही खता हो ही जाती है..
रहे थे..डर मौत से कभी लगा ही नहीं..बस ज़िंदगी को जीने से डरते रहे..दायरा जानते है अपना,
मंज़िल पाने की कोई ख्वाईश ही नहीं..जानते है तक़दीर ने मिलने की लकीर बनाई ही नहीं..तक़दीर
से तो शिकायत वो करते है,जो कमजोर होते है..हम तो तक़दीर को शुक्राना ही देते आए है,जो जितना
मिला हम को,वो कितनो को मिल पाता है..इंसान है कही ना कही खता हो ही जाती है..