नख से शिख तक सज़े श्रृंगार की सीमा से परे..क्या क्या ना किया पिया को लुभाने के लिए...नाज़नीन
हो या ज़न्नत का कोई अफसाना,या फिर उतरी हो अभी अभी आसमां की ऊचाइयों से...खवाबों मे
खोए इतना कि सांझ घिर आई..यह सांझ क्या लाई है साथ अपने...सोच कर ही लजा गए...''श्रृंगार की
जरुरत तुम को क्या होगी,तेरे मन की सुंदरता ही मुझे क़बूल होगी...सादगी का तेरा रूप,मन का वो
उजला रूप..इस के आगे इस श्रृंगार के क्या मायने है'' सुना तो सुनते ही रहे,लाज को छोड़ पिया के
संग हो लिए..
हो या ज़न्नत का कोई अफसाना,या फिर उतरी हो अभी अभी आसमां की ऊचाइयों से...खवाबों मे
खोए इतना कि सांझ घिर आई..यह सांझ क्या लाई है साथ अपने...सोच कर ही लजा गए...''श्रृंगार की
जरुरत तुम को क्या होगी,तेरे मन की सुंदरता ही मुझे क़बूल होगी...सादगी का तेरा रूप,मन का वो
उजला रूप..इस के आगे इस श्रृंगार के क्या मायने है'' सुना तो सुनते ही रहे,लाज को छोड़ पिया के
संग हो लिए..