दूर तल्क़ मन था जाने का,सो फूलो के शहर निकल गए..रूह मे थी हलचल,खुशबू के एहसास भर से
महक रहे थे अंदर ही अंदर..नज़ारो का वो मेला होगा कैसा,सिहर रहे थे अंदर ही अंदर..कुछ खिल रहे
थे अरमान इस दिल के तहखाने मे,कभी डर भी रहे थे फूलो के आने वाले आशियाने से...ओह,यह नज़र
का फेर है या धोखा,हम खड़े थे फूलो के मलबे मे..शायद मुहब्बत को पैरो तले इतना बर्बाद किया होगा
यह मलबा गवाही है उस ज़ख्मे-दास्ता का..लौट रहे है अपने ही गरीब-खाने मे,जहा सिर्फ एक फूल
को ही संवार रहे है,ओस की बूंदो से...
महक रहे थे अंदर ही अंदर..नज़ारो का वो मेला होगा कैसा,सिहर रहे थे अंदर ही अंदर..कुछ खिल रहे
थे अरमान इस दिल के तहखाने मे,कभी डर भी रहे थे फूलो के आने वाले आशियाने से...ओह,यह नज़र
का फेर है या धोखा,हम खड़े थे फूलो के मलबे मे..शायद मुहब्बत को पैरो तले इतना बर्बाद किया होगा
यह मलबा गवाही है उस ज़ख्मे-दास्ता का..लौट रहे है अपने ही गरीब-खाने मे,जहा सिर्फ एक फूल
को ही संवार रहे है,ओस की बूंदो से...