क़यामत की वो रात आई और सब बहा ले गई..सपने जो संजोए थे,टूट कर सब ढह गए..पलट कर
क्या देखते,वो जहां कब का छोड़ आए थे..आंखे भरी थे रंगीन सपनो से,क्या क्या सोच कर आए थे..
समझौता कितना करते,हक़ ही सारे तक़दीर ने मिटाए थे..लड़ते तो किस अधिकार से,साँसों का बोझ
तक तो उठा ना पाए थे..पांव रखा बाहर दहलीज़ से,रास्ते अब खुद बनाने अपनी मर्ज़ी से आए थे..
क्या देखते,वो जहां कब का छोड़ आए थे..आंखे भरी थे रंगीन सपनो से,क्या क्या सोच कर आए थे..
समझौता कितना करते,हक़ ही सारे तक़दीर ने मिटाए थे..लड़ते तो किस अधिकार से,साँसों का बोझ
तक तो उठा ना पाए थे..पांव रखा बाहर दहलीज़ से,रास्ते अब खुद बनाने अपनी मर्ज़ी से आए थे..