बिस्मिल्लाह...कह कर हम फिर आदाब से,खुदा के दरबार मे झुक गए...जो खवाबों मे ना था,जो इरादों मे
भी ना था..ज़न्नत कहते है जिसे,तहजीब का तोहफा बुलाते है जिसे..हम तो फ़क़ीर जैसे ही थे,इस दुनिया
से अलग-थलग बेगाने से थे..नूर चेहरे का लौटाया है तुम ने खुदा मेरे,दिल को जीना सिखाया भी तुम
ने.है खुदा मेरे....तेरे दरबार से ख़ाली ना जाए गे,जो हमारा है वो तो साथ ले कर ही जाए गे..
भी ना था..ज़न्नत कहते है जिसे,तहजीब का तोहफा बुलाते है जिसे..हम तो फ़क़ीर जैसे ही थे,इस दुनिया
से अलग-थलग बेगाने से थे..नूर चेहरे का लौटाया है तुम ने खुदा मेरे,दिल को जीना सिखाया भी तुम
ने.है खुदा मेरे....तेरे दरबार से ख़ाली ना जाए गे,जो हमारा है वो तो साथ ले कर ही जाए गे..