मुस्कुरा ना इतना मेरे लफ्ज़ो पे..यह लफ्ज़ तो आकाश-पाताल की सीमा से भी परे चल के आए है...
कुछ भीगे है नमी से तो कुछ पुखुड़ियो की तरह नाज़ुक और मासूम है...लफ्ज़ कोई भी उठा मगर इस
एहसास से,ठेस ना लगे इन को तेरी किसी बात से...मगरूर तो नहीं पर आत्म-सम्मानी है..ज़िंदगी के
झमेलों से परे खुद से ही बैगाने है..चोट लग जाए तो खुल कर रोते नहीं..ज़ज्बातो को कोई काटे तो रात
भर सोते नहीं...लफ्ज़ो को उतार दे इस जमीन पे कि यह आकाश-पाताल मोहलते भी रोज़ देते नहीं...
कुछ भीगे है नमी से तो कुछ पुखुड़ियो की तरह नाज़ुक और मासूम है...लफ्ज़ कोई भी उठा मगर इस
एहसास से,ठेस ना लगे इन को तेरी किसी बात से...मगरूर तो नहीं पर आत्म-सम्मानी है..ज़िंदगी के
झमेलों से परे खुद से ही बैगाने है..चोट लग जाए तो खुल कर रोते नहीं..ज़ज्बातो को कोई काटे तो रात
भर सोते नहीं...लफ्ज़ो को उतार दे इस जमीन पे कि यह आकाश-पाताल मोहलते भी रोज़ देते नहीं...