शाम दे रही है दस्तक ज़िंदगी को..घर के झरोखें से देख रहे है इस शाम को..कितनी अलग-थलग सी
यह शाम है..ना कही हंसी है ना मासूम बच्चों की किलकारियों से महकती हुई यह शाम है..सड़क बस
ख़ाली-ख़ाली है,जैसे दिल के दरवाजे से कोई लौट गया हो जैसे...परिंदे भी अब नज़र नहीं आते,शायद
खौफ उन मे भी आया है जैसे...धीमे से दिल ने खुद के दिल से कहा..क्या हम इंसा कभी पाक-साफ़ हो
पाए गे..क्या दिल के दरीचों मे कभी फूल दुबारा खिल पाए गे..जवाब कहां किस से पूछे..यहाँ हर इंसा
खुद की बनाई दुनियाँ मे ग़ुम खुद ही के साथ है..क्या कहे,यही तो इंसान है...
यह शाम है..ना कही हंसी है ना मासूम बच्चों की किलकारियों से महकती हुई यह शाम है..सड़क बस
ख़ाली-ख़ाली है,जैसे दिल के दरवाजे से कोई लौट गया हो जैसे...परिंदे भी अब नज़र नहीं आते,शायद
खौफ उन मे भी आया है जैसे...धीमे से दिल ने खुद के दिल से कहा..क्या हम इंसा कभी पाक-साफ़ हो
पाए गे..क्या दिल के दरीचों मे कभी फूल दुबारा खिल पाए गे..जवाब कहां किस से पूछे..यहाँ हर इंसा
खुद की बनाई दुनियाँ मे ग़ुम खुद ही के साथ है..क्या कहे,यही तो इंसान है...