कौन सा दिन किस बात का है...मौत से दूरी का या ज़िंदगी के करीब आने का...वल्लाह,दिन कैसा भी
हो मगर हर दिन है तो उस परवरदिगार का..सब से कहते आए है,कह रहे है...ज़िंदगी जीते-जी मर जीने
का नाम नहीं...यह वो गुलदस्ता है जिस मे हर सुबह और हर शाम,अपने अलग रंग मे ढली इक कहानी
इक नियामत है..हिम्मत छोड़ दी तो यू ही मर जाए गे..हिम्मत से जिए तो शायद ज़माने मे अपना कोई
नाम कर जाए गे...हंस ले पगले...मौत भी अपनी तो यह ज़िंदगी भी तो अपनी....
हो मगर हर दिन है तो उस परवरदिगार का..सब से कहते आए है,कह रहे है...ज़िंदगी जीते-जी मर जीने
का नाम नहीं...यह वो गुलदस्ता है जिस मे हर सुबह और हर शाम,अपने अलग रंग मे ढली इक कहानी
इक नियामत है..हिम्मत छोड़ दी तो यू ही मर जाए गे..हिम्मत से जिए तो शायद ज़माने मे अपना कोई
नाम कर जाए गे...हंस ले पगले...मौत भी अपनी तो यह ज़िंदगी भी तो अपनी....