Monday 20 April 2020

जिस्मों के खेल भी कितने अजीब है...देह-व्यापार की दुनियाँ कितनी अजीब है...वो देह जो बिकती रही

चंद सिक्को मे,देह जिस की बोली लगती रही बाज़ारो मे..देह को लूटा गया,तार -तार कर इज़्ज़त का

सौदा हर रात होता रहा...कितनी सिसकियाँ तनहा होती रही..कितने आंसू उसी देह पे गिरते रहे...देह

तो देह है,सब भूल चुके आज कि इक रूह उन सब मे बसती है..भूख अन्न की उन को भी लगती है..वो

रूप तो फिर भी कुदरत का है..देह मैली कर दी बेशक पर रूह तो अभी भी निष्पाप है..

दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का.... .....

 दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का,हम ने अपने लबो को सिल लिया...कुछ कहते नहीं अब इस ज़माने  से कि इन से कहने को अब बाकी रह क्या गया...नज़रे चु...