दुआ ही तो है जो बेहद ख़ामोशी से भी करो तो क़बूल हो जाती है..उस को कोई भी बात कहने के लिए
कहां कोई शर्म होती है..जब जीवन ही उस का दिया और सांसे भी, तो इक दीपक मंदिर मे जलाने मे
तकलीफ क्यों होती है...काम बहुत है,यह कह कर हम अपनी ही तौहीन करते है..जिस ने दिया इतना
कुछ,उस के लिए यह जान लुटाने से क्यों तकलीफ होती है...
कहां कोई शर्म होती है..जब जीवन ही उस का दिया और सांसे भी, तो इक दीपक मंदिर मे जलाने मे
तकलीफ क्यों होती है...काम बहुत है,यह कह कर हम अपनी ही तौहीन करते है..जिस ने दिया इतना
कुछ,उस के लिए यह जान लुटाने से क्यों तकलीफ होती है...