Wednesday 13 November 2019

बैठे है खुले आसमाँ के नीचे,मगर क्यों है बेहद ख़ामोशी यहाँ...कलम कह रही है क्यों ना लिखे ख़ामोशी

की दास्तां यहाँ...आज है ख़ामोशी खामोश यहाँ और यह कलम लिखती जा रही है क्या क्या यहाँ...जब

तक हम भी खामोश थे,ज़माना बहुत कुछ कहता रहा..कलम तब ना थी हाथ मे,जब यही ज़माना क्या

क्या उलझनें पेश करता रहा...कलम बोली,उठा मुझे और छा जा इस जहान पे..जो तू उठ गई,उलझनें

ज़माने की बढ़ जाए गी...डर के अब तू नहीं,ज़माना तुझ से डर जाए गा..राज़ सब तालो से खुल कर

सामने आ जाए गा...

दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का.... .....

 दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का,हम ने अपने लबो को सिल लिया...कुछ कहते नहीं अब इस ज़माने  से कि इन से कहने को अब बाकी रह क्या गया...नज़रे चु...