दुपट्टा सरका जो सर से,क्यों सूरज डूबने पे मजबूर हुआ..आसमां को निहारा जो शाम ढले तो चाँद
हमारी मरज़ी के मुताबिक क्यों निकलने पे मजबूर हुआ...शोख-शबनमी सी यह आंखे हमारी,झुके
गी जब भी तो रात को गहराना ही होगा...खोल दे गे गेसू तो तुझे भी इसी रात के सदके,मिलने हमे
आना ही होगा...ना कैसे कर पाओ गे,इस झांझर की उसी अंदाज़ी आवाज़ को रूह मे फिर से भिगोना
होगा...तेरी रूह के खालीपन को कौन भर पाए गा..मेरी ही रूह के सदके तू सकून पाने,मेरी ही रूह
से मिलने आए गा...