दुनियाँ पूछ रही है हम से हमारी ही पहचान...रहते है लफ़्ज़ों की नगरी मे और लिखते रहते है प्यार के
नायाब एहसास...वो एहसास जो हम को विरासत मे अपने बाबा से मिले..वो एहसास जो माँ ने अपनी
दुआओं मे हम को भर-भर के दिए...रूहानी-एहसास की कहानियाँ माँ-बाबा की सिखाई गई बातों से
निकल कर ही आती है..कितना सिखा पाए गे दुनियाँ को वफ़ा-प्यार के असली मायने..इस छोर से उस
छोर तक,यहाँ सलामत रहती है मुहब्बत वफ़ा के सब से ऊँचे से भी ऊँचे पायदान पर...निखरे है और
सँवरे है तो बस लफ़्ज़ों की इसी कारागिरी से...पहचान तो सिर्फ हमारी इतनी भर है कि '' सरगोशियां''
नाम से हम जाने जाते है...कोई और नाम नहीं हमारा कि ''शायरा'' को ले जाए उस की मंज़िल तक ,
ताकि माँ-बाबा को अदब से जा कर मिलने का साहस जुटा पाए...