तन्हाई से डर कैसा..अंधेरो से खौफ कैसा..उम्र गुजर रही है हर लम्हा-लम्हा,तक़दीर की लकीरों को साथ
लिए...सब कुछ कैसे मिल सकता है और सुब कुछ छिन भी कैसे सकता है...हम ने ओस की बून्द को
रखा हथेली पे अपनी,वो फिसल गई अपनी मरज़ी से घास के आंचल मे..तक़दीर की खुशियां भी कुछ
ऐसी ही होती है..उम्र होती है थोड़ी सी मगर यादों को महका जाती है..गम ना कर,यह सब के साथ ही
होता है..थोड़े गम और थोड़ी सी ख़ुशी..आ यारा,इन सब से चुरा ले बहुत सारी ख़ुशी...